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Archive for अक्टूबर, 2013

मेरी आस का मौसम नहीं बदला…………सिर्फ़ तुम्हारे लिये


एक उम्र बीती
मेरे यहाँ
पतझड को ठहरे
यूँ तो मौसम बदलते हैं
साल दर साल
मगर
कुछ शाखों पर
कभी कोई मौसम ठहरता ही नहीं
शायद
उन मे अवशोषित करने के गुण
बचते ही नहीं किसी भी मिनरल को
देखो तो
ना ठूँठ होती हैं
ना ही फ़लती फ़ूलती हैं
सिर्फ़ एक ही रंग मे
रंगी रहती हैं
जोगिया रंग धारण करने के
सबके अपने कारण होते हैं
कोई श्याम के लिये करता है
तो कोई ध्यान के लिये
तो कोई अपनी चाहत को परवान चढाने के लिये
जोग यूँ ही तो नही लिया जाता ना
क्योंकि
पतझड के बाद चाहे कितना ही कोशिश करो
ॠतु को तो बदलना ही होता है
और जानते हो
मेरी ॠतु उसी दिन बदलेगी
जिस दिन हेमंत का आगमन होगा मेरे जीवन में ………सदा के लिये
ए ………आओगे ना हेमंत का नर्म अहसास बनकर
प्यार की मीठी प्यास बनकर
शीत का मखमली उजास बनकर
देखो ………इंतज़ार की दहलीजें किसी मौसम की मोहताज़ नहीं होतीं
तभी तो युग परिवर्तन के बाद भी
मेरी आस का मौसम नहीं बदला…………सिर्फ़ तुम्हारे लिये
क्योंकि
मैं नही बदलना चाहती 

अपनी मोहब्बत के मौसम को किसी भी जन्म तक
क्या दे सकोगे साथ मेरा ……अनन्त से अनन्त तक हेमंत बनकर
जानते हो ना………मोहब्बत तो पूर्णता में ही समाहित होती है

अब कभी मत कहना ………सब कुछ है

किसने कहा नहीं हूँ 

मैं तो वहीं हूँ हर पल 
जब जब तुमने 
अपने पुरज़ोर ख्यालों में 
मेरा आलिंगन किया , 
मुझे पुकारा और 
समय के सीने पर 
एक बोसा लिया 
कब और कहाँ दूर हूँ तुमसे 
सिर्फ़ शरीरों का होना ही तो होना नहीं होता जानाँ ………

जब ख्यालों की सरजमीं पर 
यादों की कोंपलें खिलखिलाती हों ,
हर लम्हे में एक तस्वीर मुस्काती हो, 
हर ज़र्रे ज़र्रे में महबूब की झलक नज़र आती हो 
वहाँ कौन किससे कब जुदा हुआ है 
ये तो बस अक्सों का परावर्तन हुआ है 

तुममें समायी मैं 
तुम्हारी आँखों से देखती हूँ कायनात के रंगों को , 
तुममें समायी मैं 
साँस लेती हूँ तुम्हारे ख्यालों के आवागमन से , 
तुममें समायी मैं 
धडकती हूँ बिना दिल के भी तुम्हारे रोम रोम में 
तो कहो भला कहाँ हूँ मैं जुदा ………तुमसे ! 

अब कभी मत कहना ………सब कुछ है …बस तुम ही नही हो कहीं 
क्योंकि 
तुम्हारा होना गवाह है मेरे होने का ……………. 

मोहब्बत में विरह की वेदी पर आस पास गिरी समिधा को कभी देखना गौर से……. 

आवाज़ का भरम

सब कुछ टूटने पर भी 

जोड़े रखना है मुझे 
आवाज़ का भरम 
भाँय भाँय की आवाज़ का होना 
काफी है एक रिदम के लिए 
नहीं सहेज सकती अब 
सन्नाटों के शगल 
क्योंकि जानती हूँ 
सन्नाटे भी टूटा करते हैं………
मगर 
आवाजें घूमती हैं ब्रह्माण्ड में निर्द्वन्द ………. 
आवाज़ कहूं , ध्वनि या शब्द 
जिसका नहीं होता कभी विध्वंस 
इसलिए 
अब सिर्फ आवाज़ को माध्यम बनाया है 
जिसके जितने भी टुकड़े करो 
अणु का विद्यमान रहना जीवित रखेगा मुझे ……मेरे बाद भी 

प्रियतमे !

प्रियतमे !






इतना कह कर 
सोच में पड़ा हूँ 
अब तुम्हें 
और क्या संबोधन दूं 
अब तुमसे 
और क्या कहूं 
मेरा तो मुझमे 
जो कुछ था 
सब इसी में समाहित हो गया 
मेरी जमीं 
मेरा आकाश 
मेरा जिस्म 
मेरी जाँ 
मेरी धूप 
मेरी छाँव 
मेरा जीवन 
मेरे प्राण 
मेरे ख्वाब 
मेरे अहसास 
मेरा स्वार्थ 
मेरा प्यार 
कुछ भी तो अब मेरा ना रहा 

जैसे सब कुछ समाहित है 
सिर्फ एक प्रणव में 
बस कुछ वैसे ही 
मेरा प्रणव हो तुम 

प्रियतमे !
कहो , अब और क्या संबोधन दूँ  तुम्हें 

कितने प्यासे हो तुम ……कहो ना….5



अरे अरे अरे 

रुको रुको रुको 
सुनो। ………
कोई ये सोचे उससे पहले ही बता दूं 
कि  ये सब कहने और सुनने वाले 
भी तुम ही हो सिर्फ तुम 
तुम पर ये कोई आक्षेप नहीं है 
और ये जीव कहाँ तुम्हारे भेदों को 
तुम्हारे जनाए बिना जान सकता है 
बेशक माध्यम तुमने 
इस जीव को बनाया हो 
मगर इसके अन्दर 
ये भाव यूं ही उत्पन्न नहीं हुआ है 
क्योंकि 
गीता में तुम्ही ने कहा है 
कि 
जीव के हर क्रियाकलाप 
यहाँ तक कि  उसकी 
बुद्धि के रूप में भी तुम हो 
उसके मन के रूप में भी तुम ही हो 
और उसके विचारों के रूप में भी तुम ही हो 
तो जब जीव के हर कार्य का कारण 
तुम ही हो तो बताओ भला 
जीव कैसे तुमसे पृथक हो सकता है 
या सोच सकता है 
या कह सकता है 
वैसे भी तुम्हारी इच्छा के बिना 
पत्ता भी नहीं हिल सकता 
तो फिर 
ऐसे विचार या भावों का आना 
कैसे संभव हो सकता है 
इसमें जीव की कोई 
बड़ाई या करामात नहीं है 
क्योंकि 
सब करने कराने वाले तुम ही हो 
जीव रूप में भी 
और ब्रह्म रूप में भी 
जब दोनों रूप से तुम जुदा नहीं 
तो कहो ज़रा 
ये कहने और सुनने वाला कौन है 
ये इस भाव में उतरने वाला कौन है 
सिर्फ और सिर्फ तुम ही हो 
और शायद 
इस माध्यम से कुछ कहना चाहते हो 
जो शायद अभी हमारी समझ से परे हो 
मगर तुमसे नहीं 
और कर रहे हो शायद तुम भी 
समय का इंतज़ार 
जब बता सको तुम 
अपनी घुटन , बेचैनी, खोज का 
कोई तात्विक रहस्य 
किसी एक को 
जो तुमसे पूछ सके 
या पूछने का साहस कर सके 
या तुम्हारी अदम्य अभिलाषा को संजो सके 
और कह सके 
कितने प्यासे हो तुम ……कहो ना और क्यों ?

कुछ ख्याल

1)

ये कैसी विडम्बना है 

ये कैसी संस्कारों की धरोहर है 
जिसे ढो रहे हैं 
कौन से बीज गड गये हैं रक्तबीज से 
जो निकलते ही नहीं 
सब कुछ मिटने पर भी 
क्यों आस के मौसम बदलते नहीं 
करवा चौथ का जादू क्यूँ टूटता नहीं 
जब बेरहमी की शिला पर पीसी गयी 
उम्मीदों को नेस्तनाबूद करने की मेंहदी 
ये लाल रंग शरीर से बहने पर भी 
प्रीत का तिलिस्म क्यों टूटता नहीं 
उसी की उम्रदराज़ की क्यों करती है दुआ 
जिसकी हसरतों की माला में प्रीत का मनका ही नहीं 
दुत्कारी जाने पर भी क्यों करवाचौथ का तिलिस्म टूटता नहीं 
रगों में लहू संग बहते संस्कारों से क्यों पीछा छूटता नहीं……

2)

ये जो लगा लेती हूँ 
माँग मे सिंदूर और माथे पर बिन्दिया 
पहन लेती हूँ  पाँव मे बिछिया और हाथों में चूडियाँ 
और गले में मंगलसूत्र 
जाने क्यों जताने लगते हो तुम मालिकाना हक 
शौक हैं ये मेरे अस्तित्व के 
अंग प्रत्यंग हैं श्रृंगार के
पहचान हैं मुझमे मेरे होने के 
उनमें तुम कहाँ हो ? 
जाने कैसे समझने लगते हो तुम मुझे 
सिंदूर और बिछिया में बंधी जड़ खरीद गुलाम 
जबकि ……. इतना समझ लो 



हर हथकड़ी और बेडी पहचान नहीं होती बंधुआ मजदूरी की 

3

संभ्रांत परिवार हो या रूढ़िवादी या अनपढ़ समाज 

सबके लिए अलग अर्थ होते भी 
एक बिंदु पर अर्थ एक ही हो जाता है 
फिर चाहे वो सोलह श्रृंगार कर 
पति को रिझाने वाली प्रियतमा हो 
या रूढ़िवादी परिवार की घूंघट की ओट में 
दबी ढकी कोई परम्परावादी स्त्री 
या घर घर काम करके दो वक्त की रोटी का 
जुगाड़ करने वाली कोई कामगार स्त्री 
सुबह से भूखा प्यासा रहना 
कमरतोड़ मेहनत करना 
या अपने नाज नखरे उठवा खुद को 
भरम देने वाली हो कोई स्त्री 
अर्घ्य देने के बाद 
चाँद निकलने के बाद 
व्रत खोलने के बाद 
भी रह जाती है एक रस्म अधूरी 
वसूला जाता है उसी से उसके व्रत का कर 
फिर चाहे वो शक्तिहीन हो 
शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हो 
क्योंकि जरूरी होती है रस्म अदायगी 
फिर चाहे मन के मोर तेजहीन हो गए हों 
क्योंकि 
सुना है 
जरूरी है आखिरी मोहर का लगना 
जैसे मांग भरे बिना कोई दुल्हन नहीं होती 
वैसे ही रस्मों की वेदी पर आखिरी कील जरूरी है 
वैसे ही देहों के अवगुंठन बिना करवाचौथ पूर्ण नहीं होती 
वसूली की दास्ताँ में जाने कौन किसे जीतता है 
मगर 
दोनों ही पक्षों के लिए महज अपने अपने ही नज़रिए होते हैं 
कोई धन के बल पर 
कोई छल के बल पर 
तो कोई बल के बल पर 
भावनाओं का बलात्कार कर रस्म अदायगी किया करता है 
और हो जाता है 
करवाचौथ का व्रत सम्पूर्ण 

खनखनाहट की पाजेब

तुम्हारी हँसी में 
सुर है 
लय है 
ताल है 
रिदम है 
एक संगीत है 
मानो 
मंदिर में घंटियाँ बज उठी हों 
और 
आराधना पूरी हो गयी हो 
जब कहा उसने 
हँसी की खिलखिलाहट में 
हँसी के चौबारों पर सैंकडों गुलाब खिल उठे 
ये उसके सुनने की नफ़ासत थी 
या कोई ख्वाब सुनहरा परोसा था उसने 

खनखनाहट की पाजेब उम्र की बाराहदरी में दूर तक घुँघरू छनकाती  रही ……… 



ज़िन्दगी जीने के सबके अंदाज़ जुदा हुआ करते हैं

मेरे फ़लक से तुम्हारे फ़लक तक 
विचरती आकाश गंगायें 
जरूरी तो नहीं 
माध्यम बने ही 
सम्प्रेक्षणता का 
जबकि जानते हो 
ध्वनियों में भी गतिरोध हुआ करते हैं 
उमस के दरवाज़ों पर भी ताले हुआ करते हैं 
खपरैलों के भी उडने के मौसम हुआ करते हैं 
यूँ भी बेवजह ढोलक पर थाप नही दी जाती 
तो फिर क्यों बेज़ार हो खटखटाऊँ मौन की कुण्डियाँ 
जब नक्काशी के लिए मौजूद ही नहीं सुलगती लकड़ियाँ 

अब कौन  दीवान-ए -आम और दीवान-ए -ख़ास की जद्दोजहद में उलझे 
जब नागवारियों की नागफनियों से गुलज़ार हो मोहब्बत का अंगना 

ज़िन्दगी जीने के सबके अंदाज़ जुदा हुआ करते हैं जानम !!!

कितने प्यासे हो तुम………… कहो ना ……..4



सुना है 

सृजन करते करते जब थक जाते हो 
और अपनी माया समेट  लेते हो 
तब योगमाया की गोद में विश्राम करते हो 
अनंत काल तक 
उसके बाद योगमाया द्वारा तुम्हें जगाना 
और जागने के बाद ख्याल का उठाना लाजिमी है 
आखिर अपने आप में भी 
कोई कब तक समाहित रह सकता है 
जरूरत होती है उसे भी किसी साथ की 
और धारण कर लेते हो 
विविध रूप 
विविध सृष्टि 
विविध ब्रह्माण्ड 
और लग जाते हो फिर उसी दोहराव में 
जो तुम ना जाने कब से कर रहे हो 
और कब तक करते रहोगे 
कोई नहीं जानता
जानते हो क्यों ?
क्योंकि बेचैन हो तुम भी 
शायद नहीं जानते तुम भी 
आखिर तुम्हें चाहिए क्या 
गर जानते तो पा लिया होता 
क्योंकि 
सुना है तुम्हारे लिए 
कुछ भी अलभ्य नहीं 
ओह मोहन 
सोचना ज़रा कभी इस पर भी 
फुर्सत में बैठकर 
क्योंकि 
सुना ये भी है कि 
पूर्ण तो पूर्ण होता है 
उसमे किसी कामना का 
कोई बीज नहीं होता 
मगर तुम में 
अभी बाकी है कोई बीज 
यूँ ही नहीं सृष्टि निर्माण हुआ करते 
यूँ ही नहीं तुम विविध वेश धारण किया करते 
कोई तो एक कारण है तुममें 
तभी कार्य का होना संभव हुआ है 
और सुनो 
इसे खेल का नाम मत देना 
क्योंकि बच्चा भी बार – बार 
एक ही खिलौने से 
खेल – खेल कर बोर हो जाता है 
फिर तुम तो पूर्ण ब्रह्म कहलाते हो 
फिर तुम्हें क्या जरूरत थी 
बार – बार एक सी रचना रचने की 
एक सा सृजन करने की
अब तुम मानो या ना मानो 
मगर कहीं ना कहीं 
तुम्हारे भी अंतस में 
एक प्यास कायम है 
मानो पानी भरी घटायें हों और फिर भी प्यासी हों 
बस कुछ ऐसा ही तुम्हारा भी हाल है 
कितने प्यासे हो तुम………… कहो ना ! 

इस कदर भी कोई तन्हा ना हो कभी खुद से भी …

बूँद बूँद का रिसना 

रिसते ही जाना बस 
मगर आगमन का 
ना कोई स्रोत होना 
फिर एक दिन घड़े का 
खाली होना लाजिमी है 
सभी जानते हैं 
मगर नहीं पता किसी को 
वो घडा मैं हूँ 


हरा भरा वृक्ष 
छाया , फूल , फल देता 
किसे नहीं भाता 
मगर जब झरने लगती हैं 
पीली पत्तियां 
कुम्हलाने लगती है 
हर शाख 
नहीं देता 
फूल और फल 
ना ही देता छाँव किसी को 
तब ठूँठ से कैसा सरोकार 
बस कुछ ऐसा ही 
देखती हूँ रोज खुद को आईने में 

भावों के सारे पात झर गए हैं 
मन के पीपर से 
ख्यालों के स्रोते सब सूख गए हैं 
और बच रहा है तो सिर्फ 
अर्थहीन ठूंठ 
जिस पर फिर बहार आने की उम्मीद 
के बादल अब लहराते ही नहीं 
तो कैसे कहूँ 
खिलेगा भावों का मोगरा फिर से दिल के गुलशन में 

इस कदर भी कोई तन्हा ना हो कभी खुद से भी …