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Archive for अप्रैल, 2010

क्षणिकाएं

तेरा चहकना
महकना ,मचलना
खिलखिलाना 
कुछ यूँ लुभाता है
जैसे कोई नदिया तूफानी 
सागर के सीने पर
अठखेलियाँ कर रही हो 

तेरे पहलू में 
सिर रखकर
सुकून पाना
अब किस्मत नहीं
तुझे याद रखना
या भूल जाना
अब बस में नहीं


दीदार तेरा हो 
अक्स मेरा हो
रूह तेरी हो
जिस्म मेरा हो
नींद तेरी हो
ख्वाब मेरा हो
मौत मेरी हो जिसमें
वो गोद तेरी हो 


नज़्म बना मुझे
कागज़ पर उतार मुझे
ख्वाहिश बना मुझे
नज़रों में बसा मुझे
तेरी चाहत का सिला बन जाऊँ
बस एक बार पुकार मुझे 


ख्वाबों के सूखे दरख्तों पर 
आशियाँ बनाया नहीं जाता
हर चाहने वाली सूरत को
दिल का दरवाज़ा दिखाया नहीं जाता 


तेरे ग़मों की दुनिया में
अश्क मेरे बहते हैं
दर्द के ये कुछ फूल हैं
जो काँटों पर ही सोते हैं

 

एक सत्य ———५० वीं पोस्ट

प्यार
इश्क 
मोहब्बत
प्रेम 
सब 
कर 
लिया
मगर 
फिर
भी 
खुदा
ना मिला 
जब 
खुद 
को
नेस्तनाबूद 
किया
 तब
“मैं “
ना 
मिला
बस 
“खुदा “
ही 
था 
वहाँ

जब सवाल करने का हक हो ?

कोई चीत्कार 
सुनी नहीं 
मगर फिर भी
चीत्कार होती है 
जो बिना सुने 
भी सुनाई देती है
अंतर्मन को 
झकझोरती है
सागर के फेन 
सा जीवन 
उसमें भी
वक़्त के तरकश में 
दबी , ढकी , 
अंधकार में डूबी 
कुछ वीभत्स करती
आत्मा को 
झिंझोड़ती आवाजें
 बिना कहे भी
बहुत कुछ 
कह जाती हैं 
उस अंधकार की
कालकोठरी में
चीत्कारती हैं
मगर उन्हें 
वहीँ उन्ही 
तहखानो में 
दफ़न कर दिया 
जाता है
जवाब तो तब मिले
जब सवाल करने 
का हक हो  ?

ओ मेरे प्यारे

सुनो 
तुम्हें ढूंढ रही हूँ
जन्मों से 
रूह आवारा
भटकती 
फिरती है
इक तेरी 
खोज में
और तू 
जो मेरे
वजूद का 
हिस्सा नहीं
वजूद ही 
बन गया है
ना जाने 
फिर भी
क्यूँ मिलकर भी
नहीं मिलता
सिर्फ अहसासों में
मौजूद होने से
क्या होगा 
अदृश्यता में
दृश्यता को बोध 
होने से क्या होगा
नैनों के दरवाज़े से
दिल के आँगन में
अपना बिम्ब तो 
दिखलाओ 
इक झलक 
पाने को 
तरसती 
इस रूह की
प्यास तो 
बुझा जाओ 
ओ मेरे प्यारे
राधा सा विरह 
तो दे दिया
मुझे भी अपनी 
राधा तो बना जाओ

गीत- गोविन्द

गीत गोविन्द के गाती फिरूँ
मैं तो तन- मन में गोविन्द झुलाती फिरूँ 
गली- गली गोविन्द गाती फिरूँ
मैं तो तेरे ही दर्शन पाती फिरूँ
अँखियों में गोविन्द सजाती फिरूँ
हिय की जलन मिटाती फिरूँ
जन जन में गोविन्द निहारती फिरूँ
कभी गोपी कभी कृष्ण बनती फिरूँ
मैं तो गोविन्द ही गोविन्द गाती फिरूँ
कभी गोविन्द को गोपाल बनाती फिरूँ
कभी राधा को गोविन्द बनाती फिरूँ
कभी खुद में गोविन्द समाती फिरूँ
कभी गोविन्द में खुद को समाती फिरूँ
मैं तो गोविन्द ही गोविन्द गाती फिरूँ
मैं तो गोविन्द से नेहा लगाती फिरूँ
कभी गोविन्द को अपना बनाती फिरूँ
कभी गोविन्द की धुन पर नाचती फिरूँ
मैं तो मुरली अधरों पर सजाती फिरूँ
कभी मुरली सी गली- गली बजती फिरूँ
मैं तो गोविन्द ही गोविन्द गाती फिरूं
कभी बावरिया बन नैना बहाती फिरूँ
कभी गुजरिया बन राह बुहारती फिरूँ
कभी गोविन्द की राधा प्यारी बनूँ
कभी गोविन्द की मीरा दीवानी बनूँ
मैं तो गोविन्द ही गोविन्द गाती फिरूँ
मैं तो तन- मन में गोविन्द झुलाती फिरूँ

अधूरे ख्याल

यूँ ही
भटकते- भटकते
कभी- कभी
अधकचरे , अधपके
अधूरे ख्यालात
दस्तक देते हैं
और फिर ख्यालों
की भीड़ में
खो जाते हैं
और हम फिर
उन्हें ख्यालों में
ढूंढते हैं
मगर कभी
खोया हुआ
मिला है क्या
जो मिल पाता
ये अधूरे ख्याल
क्यूँ अंधेरों में
खो जाते हैं
क्यूँ इतना तडपाते हैं
क्यूँ अधूरे ख्याल
अधूरे ही रह जाते हैं
भावनाओं में
क्यूँ नही
पलते हैं
शब्दों में
क्यूँ नही बंधते हैं
क्यूँ अधूरेपन की
पीर सहते हैं
शायद कुछ ख्यालों की
किस्मत अधूरी होती है
या अधूरापन ही
उनकी फितरत होती है

नैनन पड़ गए फीके

सखी री मेरे
 नैनन पड़ गए फीके
रो-रो धार अँसुवन की 
छोड़ गयी कितनी लकीरें
आस सूख गयी 
प्यास सूख गयी
सावन -भादों बीते सूखे 
सखी री मेरे
नैनन पड़ गए फीके
बिन अँसुवन  के 
अँखियाँ बरसतीं 
बिन धागे के 
माला जपती 
हो गए हाल  
बिरहा  के 
सखी री मेरे
नैनन पड़ गए फीके  
श्याम बिना फिरूं 
 हो के दीवानी
लोग कहें मुझे 
मीरा बावरी 
कैसे कटें 
दिन बिरहन के
सखी री मेरे
नैनन पड़ गए फीके
हार श्याम को
सिंगार श्याम को
राग श्याम को
गीत श्याम को
कर गए
जिय को रीते 
सखी री मेरे
नैनन पड़ गए फीके






पत्थर हूँ मैं

पत्थर हूँ ना 
खण्ड- खण्ड 
होना मंजूर
पर पिघलना 
मंजूर नहीं 

स्थिर , अटल 
रहना  मंजूर 
पर श्वास , गति 
लय मंजूर नहीं

पत्थर हूँ ना
पत्थर- सा 
ही रहूँगा 
अच्छा है 
पत्थर हूँ
कम से कम 
किसी दर्द 
आस , विश्वास
का अहसास 
तो नहीं
कहीं कोई 
जज़्बात तो नहीं
किसी गम में 
डूबा तो नहीं
किसी के लिए 
रोया तो नहीं
किसी को धोखा 
दिया तो नहीं
अच्छा है
पत्थर हूँ
वरना 
मानव 
बन गया होता
और स्पन्दनहीन बन
मानव का ही
रक्त चूस गया होता
अच्छा है
पत्थर हूँ
जब स्पन्दनहीन 
ही बनना है
संवेदनहीन 
ही रहना है
मानवीयता से
बचना है
अपनों पर ही
शब्दों के 
पत्थरों से 
वार करना है
मानव बनकर भी 
पत्थर ही 
बनना है
तो फिर 
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं  

कहा था ना ………….२०० वीं पोस्ट

देखा 
कहा था ना
कभी मैंने 
एक वक़्त 
आएगा
जब तेरे 
अरमाँ जवाँ होंगे
 और मेरे
वक़्त की 
कब्र में 
तेरे ही हाथों 
दफ़न हो
चुके होंगे
उस वक़्त
कैसे , फिर से
जिंदा करेगा 
मृत जज्बातों को
 कहा था ना 
एक दिन 
आवाज़ देगा मुझे
जब तेरे अहसास 
जागेंगे तुझमें
जब अरमानो की
झिलमिलाती चादर
बह्काएगी तुझे 
जब ख्वाबों के 
अंकुर झूला 
झुलायेंगे तुझे 
तब आवाज़ 
देगा मुझे
मगर जिंदा लाशें भी
कहीं सुना करती हैं 
जिसके हर अहसास 
को तूने ही कभी
अरमानो की 
चिता पर राख़ 
किया था
और राख़ को भी
तूने ना सहेजने 
दिया था
फिर कैसे आज 
रिश्ते की राख़
ढूंढता है
अब किस नेह 
के बीज का 
अंकुरण करता है
मुरझा चुके हैं 
जो फूल
कितना ही नेह के 
जल से सींचो
फिर नहीं 
खिलने वाले
कहा था ना
मौसम बेशक 
बदलते हैं
मगर जिस 
गुलशन को 
अपने हाथों 
उजाडा हो
वहाँ बसंत 
नहीं आता
पतझड़ हमेशा 
के लिए 
ठहर जाता है
कहा था ना
वक़्त किसी का 
नहीं होता
अब लाख 
सदाएँ भेज
गया वक़्त
लौट कर 
नहीं आता
 

ये किस मोड़ पर ? …………..अंतिम भाग

गतांक से आगे …………………
अब निशि मंझधार में फँसी थी जिसका कोई साहिल ना था. अब उसे समझ आ रहा था घर , परिवार , पति , बच्चों का महत्त्व. अब उसे लग रहा था कि वो कैसी झूठी मृगतृष्णा के पीछे भाग रही थी. रंग – रूप , धन -दौलत, ऐशो- आराम कोई मायने नहीं रखता जब तक अपना परिवार अपने साथ ना हो. परिवार के सदस्यों का साथ ही इंसान का सबसे बड़ा संबल होता है , उन्ही के कारण वो ज़िन्दगी की हर जंग जीत जाता है मगर आज निशि अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी जंग हार चुकी थी. अगर घर के सदस्यों ने उसकी तरफ अपना हाथ बढ़ाये रखा होता , उसके अकेलेपन के कुछ पलों को बाँटा होता तो शायद ये नौबत ना आती या फिर शायद निशि ने कुछ समझदारी रखी होती ,अपने बढ़ते क़दमों पर कुछ अंकुश लगाये होते तो उसे ये दिन ना देखना पड़ता क्यूंकि ये दिन तो हर औरत की ज़िन्दगी में आता है जब एक वक़्त वो अकेली पड़ जाती है मगर इसका ये मतलब तो नहीं ना कि हर औरत गलत राह पर चल पड़े ,उसे भी अपने उस वक़्त का सही उपयोग करना चाहिए था , ये सब बातें उसे मथ रही थीं. आज उसने अपने , अपनों को , उनके प्यार , विश्वास को चोट पहुंचाई थी जिसका शायद कोई प्रायश्चित नहीं था. शर्मिंदगी का अहसास उसे जीने नहीं दे रहा था. बेशक बच्चों को कुछ नहीं पता था मगर राजीव की निगाहों में बैठी अविश्वास की लकीर वो सहन नहीं कर पा रही थी . उसकी ख़ामोशी ही बिना कहे सब कुछ कह देती थी. राजीव की ख़ामोशी उसे हर पल तोड़ रही थी और साथ ही आत्मग्लानि का बोध उसके मानसिक संतुलन को बिगाड़ रहा था. निशि क्षण -प्रतिक्षण ज़िन्दगी से दूर जा रही थी क्यूंकि वो नहीं चाहती थी कि उसके बच्चों को कभी ज़िन्दगी में पता चले कि उम्र के ऐसे मोड़ पर जाकर उनकी माँ रास्ता भटक गयी थी और वो उससे नफरत करने लगें . राजीव की नफरत ही उसे जीने नहीं दे रही थी और अगर बच्चों के मन में भी यदि नफरत का अंकुरण फूट गया तो वो कैसे सहन करेगी, कैसे बच्चों से निगाह मिला पायेगी, क्या फिर कभी वो उनके किसी गलत काम पर उन्हें कुछ कहने की हिम्मत कर पायेगी ? ये सब बातें उसे विचलित कर रही थीं. अगर वो तलाक भी लेती है तो क्या वजह बताई जाएगी जब दिखने में सब कुछ सामान्य है तो और फिर क्या वो जी पायेगी अपने परिवार के बिना ?क्या उनके बिना उसका कोई अस्तित्व है ? ज़िन्दगी बोझ ना बन जाएगी?तब भी तो वो अकेलापन उस पर हावी हो जायेगा ?तब कहाँ जाएगी वो और क्या करेगी ?ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जो उसकी अंतरआत्मा उससे पूछती और उसके पास इन सवालों का कोई जवाब ना होता .
एक ज़रा सी भूल कई बार हँसते -खेलते परिवार की तबाही का कारण बन जाती है . उस हद तक कोई ना तो सोच पाता है और ना ही चाहता है कि कोई ये कदम उठाये. बेशक भूल बहुत बड़ी नहीं थी कि जिसे माफ़ ना किया जा सके मगर आत्मग्लानि का बोझ सबसे बढ़कर होता है . शायद राजीव कुछ वक़्त बाद समझौता कर भी लेता मगर अपनी ही निगाहों में गिरना शायद सबसे बड़ा अभिशाप है. और जब इंसान खुद की निगाहों में गिर जाता है तब शायद ऐसा कदम उठाने की सोचता है क्यूंकि उसे चारों तरफ सिवाय अँधेरे के और कुछ नहीं सूझता. हर राह बंद दिखाई देती है . हर पल घुट – घुटकर जीना इंसान को भीतर ही भीतर तोड़ देता है फिर वो उन अहसासों से उबर नहीं पाता और ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है .
और फिर इसी उहापोह में फँसी निशि ने वो कदम उठा लिया जो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था . निशि ने आत्महत्या कर ली . सबने समझा डिप्रेशन में थी इसीलिए आत्महत्या कर ली मगर असल कारण सिर्फ राजीव जानता था और आज वो भी पछता रहा था क्यूंकि उसने इस स्थिति के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं था . निशि की एक छोटी सी भूल ने पूरे परिवार को किस मोड़ पर पहुंचा दिया था जहाँ सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा था.
समाप्त .