Just another WordPress.com weblog

Archive for नवम्बर, 2010

>मेरे सपनो का शहर

>अनंत यात्राओं की 
अंतहीन पगडंडियों
पर चलते चलते 
जब कभी थक जाती हूँ 
तब कुछ पल 
जीना चाहती हूँ
सिर्फ तुम्हारे साथ
तुम्हारी आशाओं 
अपेक्षाओं और 
अपनी चाहतों के साथ
जहाँ मेरी हर चाहत
परवान चढ़ सके 
और तुम्हारे वजूद का
हिस्सा बन सके 
जहाँ तुम्हारे ह्रदय के
हर गली कूचे पर
सिर्फ मेरा नाम लिखा हो 
हर मोड़ पर 
मेरा बुत खड़ा हो
जिसके हर घर में 
तुम्हारी मुस्कराहट 
तैर रही हो और 
मेरे पाँव थिरक रहे हों 
तुम्हारी प्रेममयी झंकार पर
जहाँ एक ऐसा आशियाना हो 
जिसमे सिर्फ तुम्हारा 
और मेरा वजूद
अपना वजूद पा रहा हो 
और कभी हम किसी 
भीड़ के रेले में 
चुपचाप हाथों में हाथ डाले
चल  रहे हों और
इक दूजे की धडकनें
सुन रहे हों
बस कुछ पल 
इसी सुकून के 
जीना चाहती हूँ
जिसे तुमने 
मेरा नाम दिया है
और मेरे अस्तित्व का
प्रमाण दिया है
उसी अपने घर में 
रहना चाहती हूँ
जानते हो ना 
कौन सी है वो जगह
 वो है तुम्हारा ह्रदय
मेरे सपनो का शहर

>टिशु पेपर हूँ मैं………………

>लोग आते हैं
अपनी कहते हैं
चले जाते हैं
हम सुनते हैं 

ध्यान से गुनते हैं
दिल से लगा लेते हैं
जब तक संभलते हैं
वो किसी और
मुकाम पर
चले जाते हैं
और हम वहीं
उसी मोड़ पर
खाली हाथ
खड़े रह जाते हैं

कभी कभी लगता है
टिशु  पेपर हूँ  मैं

>आँच

>मद्धम- मद्धम 
सुलगती आँच 
और सीली 
लकड़ियाँ 
चटकेंगी तो
आवाज़ तो 
होगी ही
लकड़ियों का 
आँच की
तपिश से 
एकीकृत होना
और अपना 
स्वरुप खो देना
आँच की 
सार्थकता 
का प्रमाण 
बन जाना
हाँ , आँच
का होना
जीवंत बनाता 
है उसे 
सार्थकता का
अहसास 
कराता है 
आँच पर 
तपकर ही 
कुंदन खरा 
उतरता है
फिर चाहे 
ज़िन्दगी हो 
या रिश्ते 
 या अहसास
आँच का होना
उसमे तपना ही
जीवन का
सार्थक प्रमाण
होता है
लकड़ियाँ
सुलगती 
रहनी चाहिए
फिर चाहे 
ज़िन्दगी की 
हों या 
दोस्ती की 
या रिश्ते की
मद्धम आँच
का होना 
जरूरी है
पकने के लिए
सार्थकता के लिए
अस्तित्व बोध के लिए

>शायद जीना इसी का नाम है

>साइकिल पर 
रखकर सामान
सुबह सुबह
निकल पड़ते हैं 
किस्मत से लड़ने 
गली गली 
आवाज़ लगाते 
“फोल्डिंग बनवा लो “
और फिर 
कभी कभार ही 
कोई मेहरबान होता है
बुलाता है 
मोल भाव करता है
और बड़ा 
अहसान- सा करके
काम देता है  
उस पर यदि कोई 
बुजुर्ग हो बनाने वाला 
तो वो उसे अपनी 
किस्मत मान लेता है
और सौदा कर लेता है

जिस उम्र में हड्डियाँ 
ठहराव चाहती हैं
उस उम्र में परिवार का 
बोझ कंधे पर उठाये
जब वो निकलता होगा 
ना जाने कितनी आशाओं 
की लड़ियाँ सहेजता होगा
फोल्डिंग बनाते बनाते 
हर पट्टी में जैसे 
सारे दिन की दिनचर्या 
बुन लेता होगा

सड़क पर बैठकर 
कड़ी धूप में 
पसीना बहाते हुए
उसे सिर्फ मिलने वाले 
पैसों से सपने खरीदने 
की चाह होती है
एक वक्त की
रोटी के जुगाड़ 
की आस होती है
कांपते हाथों से 
दिन भर में
बा-मुश्किल 
दो ही फोल्डिंग 
बना पाता है
उन्ही में 
जीने के सपने
सजा लेता है 
और ज़िन्दगी के
संघर्ष पर
विजय पा लेता है
और शाम ढलते ही
एक नयी सुबह की
आस में सपनो का 
तकिया लगाकर 
सो जाता है
शायद 
जीना इसी का नाम है 

>आहों मे असर हो तो……………

>आहों मे असर हो तो
खुद दौडे चले आते हैं
फिर बाँह पकड कर के
सीने से लगाते हैं

याद मे जब उनकी
हम नीर बहाते हैं
खुद वो भी तडपते हैं
और हमे भी तडपाते हैं

कभी अपना बनाते हैं
कभी मेरे बन जाते हैं
ये आँख मिचौलियाँ 

श्याम मुझसे निभाते हैं
आहों में असर हो तो
खुद दौड़े आते हैं 

कभी छुप छुप जाते हैं
कभी दरस दिखाते हैं
श्याम झलक को
जब नैना तरसते हैं
वो बन के पपीहा मेरे
मन मे बस जाते हैं

आहों में असर हो तो
खुद दौड़े चले आते हैं 

कभी गोपी बन जाते हैं
कभी रास रचाते हैं
खुद भी नाचते हैं
संग मुझे भी नचाते हैं
ये प्रेम के रसरंग 
श्याम प्रेम से निभाते हैं
आहों मे असर हो तो
खुद दौडे आते हैं

कभी करुणा बरसाते हैं 
और प्रीत बढ़ाते हैं 
ये प्रेम की पींगें श्याम
रुक रुक कर बढ़ाते हैं 
आत्मदीप जलाकर के 
हृदयतम भी मिटाते हैं
आहों में असर हो तो
खुद दौड़े चले आते हैं

>बस एक बार तू कदम बढाकर तो देख ………

>ख्याल  : मजाक है क्या ये 
                   मुझे भी बता दो 
             अरसा हुए हँसे हुए
             चलो , मैं भी हँस लेती हूँ 
             हा हा हा ………..

हकीकत :ऐसा क्या हो गया ?
              रोज हँसा करो 
              मगर किसी के सामने नहीं 

  ख्याल:  तो फिर कहाँ ?

हकीकत :  अकेले में 

  ख्याल :  क्यूँ ?
           अकेले में तो 
           पागल हँसते हैं 
           क्या अब यही ख़िताब 
           दिलाना बाकी है
           याद को यूँ दबाना बाकी है 
           किसी दर्द को यूँ जगाना बाकी है 
           आखिर कैसे हँसूँ ?
           किस लीक का कोना पकडूँ 
           किस वटवृक्ष की छांह पकडूँ 
           कौन -सी अब राह पकडूँ
           बिना लफ्ज़ के कैसे बात करूँ
           ख़ामोशी भी डंस रही है 
           नासूरों सी पलों में बस गयी है 
           फिर कैसे अकेले में हँसे कोई?

हकीकत : ख़ामोशी भी पिघलने लगेगी
               यादें भी सिमटने लगेंगी 
               दर्द भी बुझने लगेंगे
               बस एक बार मुझे 
               गले लगाकर तो देख
               मुझे अपना बनाकर तो देख
               लबों पर मुस्कराहट भर दूँगा 
               तेरे ग़मों को अंक में भर लूँगा 
               बस एक बार मुझे  
               अपना बनाकर तो देख 
               चाहत का लिबास पहना दूँगा 
               तुझे तुझसे चुरा लूँगा
               तेरे साये को भी 
               अपना साया बना लूँगा
               बस एक बार मुझे 
               हमसफ़र बना कर तो देख
               मेरी चाहत को अपना
               बनाकर तो देख
               रंगों को दामन में
               सजाकर तो देख
               मोहब्बत की रेखा
               लांघकर तो देख
               हर मौसम गुलों सा
               खिल जायेगा
               चाँद तेरे आगोश में 
               सिमट जायेगा
               चाँदनी सी तू भी
               खिल जाएगी
               झरने सी झर- झर
               बह जाएगी
               बस एक बार तू
               कदम बढाकर तो देख ………

>खाली पहर

>आज एक
खाली पहर
बीत रहा है
कोई सांस नहीं
कोई आस नहीं
कोई चाह नहीं
अब इसमें
हर स्पंदन मौन
वक्त की मूक
अभिव्यक्ति का
गवाह बनता
ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो
बचा हो तो
सिर्फ उस पहर का
रीतापन
अपने बेसबब
हाल पर
कुंठाओं के
बीज बोता हुआ
 अब कुछ नही बचा……………
शायद खालीपन का अहसास भी नही
जैसे बुहारा गया हो आंगन
 और निशाँ सब मिट चुके हों

>खामोशी की डगर और उम्मीद की किरण …………………………आखिरी किस्त

>प्रेम ने कब प्रेम के बदले प्रेम चाहा है वो तो प्रेमी की ख़ुशी में ही खुश रहता है ……….उसके अधरों की एक मुस्कान के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार रहता है ………जब उसका प्रेम इस ऊँचाई पर पहुँच गया तो वो नहीं चाहता था कि उसके प्रेम पर कोई ऊंगली उठाये इसलिए ……………….

अब आगे …………..




धीरे -धीरे रोहित ने पूजा से थोड़ी दूरी बनानी  शुरू कर दी बेशक आज भी पूजा ही उसकी प्रेरणा थी मगर फिर भी वो इस तरह रहने लगा जिसमे किसी को आभास ना हो यहाँ तक कि पूजा भी ये ना सोचे बल्कि यही समझे घर गृहस्थी में व्यस्त है वो . शायद समय की यही मांग थी . कुछ प्रेम आधार नहीं चाहते सिर्फ अपने होने में ही संतुष्टि पाते हैं ……….ऐसा ही हाल रोहित के प्रेम का था . अब रोहित ने चाहे अपनी तरफ से दूरियां बढ़ा ली थीं मगर जिस चेहरे को दिन में एक बार देखे बिना उसकी सुबह नहीं होती थी अब कई – कई दिन बीत जाते थे तो ये दंश रोहित को अन्दर ही अन्दर काटने लगा. अपने बनाये मकडजाल में ही रोहित फंसने लगा . अपनी बनाई सीमा को ना तो लांघना चाहता था और ना ही इस पार रह पा रहा था ………..अब वो अन्दर ही अन्दर घुटता था , तड़पता था मगर कभी नहीं चाहता था कि उसकी प्रेरणा पर, उसके पवित्र प्रेम पर कभी कोई लांछन   लगे इसलिए इस पीड़ा को सहन करते – करते कब रोहित अन्दर से खोखला होता गया ,पता ही ना चला ………..उसके जीने की वजह बन चुकी थी पूजा और उसने खुद को ही इस अग्निपरीक्षा में होम किया था …………और जब जंग अपने आप से हो तो इंसान के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल होती है ……….संसार से लड़ा जा सकता है मगर अपने आप से लड़ना और जीतना शायद इंसान के लिए बहुत मुश्किल होता है और यही हाल रोहित का था ……….सिर्फ अन्दर से ही नहीं खोखला हो रहा था रोहित बल्कि अब उसका असर शरीर पर भी दिखने लगा था . धीरे – धीरे रोहित का शरीर थकने लगा . एक उदासी ने उसके मन में डेरा लगा लिया था बेशक आज भी पूजा रुपी प्रेरणा से वो उसी उत्साह और उमंग से लिखता था मगर फिर भी शरीर ने साथ देना छोड़ दिया था …………मन की निराशा का असर शरीर पर गहराने लगा और धीरे- धीरे उसने बिस्तर पकड़ लिया मगर किसी से कुछ नहीं कहा और ना ही महसूस होने दिया . 

सभी डाक्टरों को दिखा लिया , अच्छे से अच्छा इलाज करा  लिया मगर किसी भी इलाज का कोई असर ना होता रोहित पर . और फिर एक दिन पूजा जब उसे देखने आई तो उसका हाल देखकर घबरा गयी. काफी जानने की कोशिश की मगर कुछ ना जान पाई बस सिर्फ रोहित की आँखें ही कुछ बोल रही थीं जिन्हें पूजा समझ तो गयी थी मगर उसके आगे जानकर भी अनजान बनी हुई थी . वो किसी भी प्रकार का कोई बढ़ावा नहीं देना चाहती थी जिससे कोई उम्मीद रोहित के दिल में जगे ………..आखिर समझदार औरत थी .

रोहित ने पूजा से कहा , ” मेरे जाने के बाद मेरी एक अमानत मैं आपको देना चाहता हूँ क्योंकि उसकी क़द्र सिर्फ आप ही कर सकती हैं “इतना सुनते ही पूजा तमककर बोली ,”रोहित क्या है ये सब, कैसी बातें कर रहे हो ? कहाँ जा रहे हो और कौन तुम्हें जाने देगा ?अरे मैं तो सोच रही थी तुम अपनी गृहस्थी में बिजी हो मगर वो तो मिसेश शर्मा  से पता चला कि तुम इतने बीमार हो . मुझे तो लगता है बीमारी तो बहाना  है आराम करने का . है ना !” इतना सुनते ही रोहित फीकी सी हँसी हँस दिया . 

तब पूजा बोली ,” क्या बात है रोहित , क्या कोई परेशानी है? तुम तो हमेशा से हंसमुख इन्सान रहे हो मगर अब ऐसा क्या हो गया जो तुम्हारी ये हालत हो गयी है . निशा बता रही थी कि तुम्हें कोई रोग भी नहीं है इसका मतलब कोई दिल का रोग है तभी ऐसा होता है ……….क्यूँ सही कह रही हूँ ना . “
ये सुनकर रोहित बोला ,” पूजा जी , ऐसी कोई बात नहीं है , आपको वहम हो रहा है . सिर्फ काम का बोझ है बाकी इतना तो ज़िदगी में लगा ही रहता है आप बेकार में चिंता कर रही हैं .”

मगर पूजा कौन सी कम थी आज तो ठान कर आई थी कि रोहित को ठीक करके ही आएगी . एक दम बोली , ” तुम मुझे क्या समझते हो ? तुम जो कह दोगे मान लूंगी . पहले तो छोटी- छोटी बात के लिए भी मेरे से पूछने आते थे . माना कि अब तुम सयाने हो गए हो मगर इसका मतलब ये नहीं कि मुझसे ज्यादा अक्ल आ गयी है . अब बताओ , कौन सी ऐसी बात है जिसने तुम्हारा ये हाल बना रखा है . ” 

मगर रोहित भी कम ना था , वो बार -बार बात को टालता रहा तब पूजा बोली ,”रोहित देखो मुझे लगता है कि तुम अपने और अपने परिवार के साथ ज्यादती कर रहे हो . आखिर तुम्हारे परिवार का क्या दोष ? उन्हें किस बात की सजा दे रहे हो ? क्या उनकी देखभाल करना तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ? उनके प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना क्या तुम्हारा दायित्व नहीं और ऐसे अन्दर ही अन्दर घुटकर तो तुम उनके साथ भी अन्याय कर रहे हो . देखो तो ज़रा निशा और बच्चों की तरफ——-क्या हाल हो गया है उनका . देखो तुम बेशक कुछ ना बताना चाहो , मैं तुम पर दबाव नहीं डालूंगी मगर फिर भी तुमसे ये उम्मीद जरूर करुँगी कि आज के बाद तुम्हारा ज़िन्दगी के प्रति दृष्टिकोण बदलेगा. ज़िन्दगी सिर्फ ओसारे  की छाँव ही नहीं है . ना जाने किन- किन मोड़ों से इन्सान को गुजरना पड़ता है. सिर्फ अपने लिए जीना ही जीना नहीं होता , कभी- कभी दूसरों के लिए भी जीना पड़ता है . तुम्हारी जो भी समस्या है उसे अगर तुम नहीं बताना चाहते तो मत बताओ मगर उसे स्वयं पर , अपने व्यक्तित्व पर हावी मत होने दो . मनचाहा हर किसी को नहीं मिलता . बच्चा भी चाँद पकड़ने की ख्वाहिश करता है मगर क्या कभी छू सकता है उसे ? अपनी इच्छाओं को , आकांक्षाओं को इतनी उड़ान मत भरने दो कि जीवन ही बेमानी होने लगे . अगर तुम खुद को बदल सको और मेरे कहे पर ध्यान दे सकोगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा. ऐसा लगेगा कि तुमने मेरा मान रखा . इतने सालों  के साथ को इज्ज़त दी है . आज तक तुमसे कुछ नहीं चाहा मगर आज चाहती हूँ कि तुम मुझसे ये वादा करो कि तुम अपनी ज़िन्दगी घुट- घुट कर बर्बाद नहीं करोगे बल्कि भरपूर और खुशहाल  ज़िन्दगी जियोगे अगर तुम्हारी नज़र में मेरा ज़रा भी सम्मान है तो . ” 

इतना कह कर पूजा तो चुप हो गयी क्योकि वो समझ तो गयी थी कि मानव मन बेहद भावुक होता है और ज़रा सी भी आशा की किरण कहीं दिखाई  देने लगती है तो वहीँ आसरा बनाने लगता है , ख्वाब संजोने लगता है इसलिए सब कुछ समझते हुए भी जान कर भी अनजान बनते हुए पूजा ने बातें इस तरह कीं  कि जिसके बाद रोहित के लिए कुछ कहने को ना बचे और वो यही समझे कि पूजा एक हितैषी की तरह उसे समझा रही है ना कि वो उसके बारे में , उसके दिल के बारे में सब जान गयी है , ये पता चले इसलिए पूजा ने रोहित से ऐसा वादा लिया ताकि इसे पूजा की ख्वाहिश समझे रोहित और यही ख्वाहिश उसके जीवन का संबल बन जाए आखिर उसके लिए तो पूजा की ख्वाहिश ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ख्वाहिश थी ना . उसकी प्रेरणा ने आज उससे कुछ माँगा था और वो मना कैसे कर सकता था ———शायद ये बात पूजा अच्छी तरह से जानती थी क्योंकि यही उम्मीद की एक किरण उसे नज़र आई थी रोहित को जीवन से जोड़ने के लिए ………………..
आज बिना इज़हार के भी प्रेम अपनी बुलंदियों पर पहुँच  गया था .

समाप्त

>वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ

>चाहे शोषित  करे कोई 
चाहे उपेक्षित भी होती हूँ 
मगर मन के धरातल पर
डटकर खडी रहती हूँ
संस्कारों की वेणी में जकड़ी

मन से तो मैं आज भी वही
पुरातन भारतीय नारी हूँ 


चाहे मानक रोज नए बनाती हूँ
अपनी सत्ता का आभास कराती हूँ 
मगर मन की अतल गहराइयों से तो
आज भी १८वीं  सदी की नारी हूँ 


चाहे आसमां को छू आऊँ 
अन्तरिक्ष में उड़ान भर आऊँ
पर पैर जमीन पर ही रखती हूँ 
अपने मूल्यों की थाती को 
ना ताक पर रखती हूँ
चाहे विचारों में समरसता हो 
चाहे भावों में एकरसता हो
मित्रता के आयाम बनाती हूँ
पर पुरुष मन में उठे भावों की
गंध पहचानती हूँ इसीलिए 
पर पुरुष की छाया का 
ख्वाबों में भी प्रवेश वर्जित है 
मैं ऐसी संस्कारों में जकड़ी नारी हूँ


चाहे कितनी आधुनिक कहलाती हूँ 
अधिकारों के लिए दुनिया से लड़ जाती हूँ
उन्मुक्तता , स्वतंत्रता मेरे अधिकार हैं
स्वच्छंद हवा में विचरण करना मेरी नियति है
मगर उसका दुरूपयोग कभी ना करती हूँ
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों 
को भी खूब समझती हूँ 
तभी तो  मन से आज भी 
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ


वक्त पड़ने पर 
दृढ संकल्प शक्ति 
की बदौलत
चाहे दुर्गा बन जाऊँ
काली सा संहार करूँ 
लक्ष्मीबाई सी लड़ जाऊँ
मगर फिर भी मुझमें  बसती 
वो ही पुरातन नारी है 

जो बीज रोपित किये थे सदियों ने 
उन्ही से पोषित होती हूँ
इसीलिए कभी भी अपनी 
संस्कारों की ज़मीन नहीं खोती हूँ 
मैं आज भी संस्कारों के 
बीज रोपती हूँ  और 
संस्कारों की फसल उगाती हूँ
क्योंकि आज भी मन से तो मैं
वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ

>खामोशी की डगर और उम्मीद की किरण …………………………भाग 3

>इधर रोहित जब से पूजा से मिला उसमे परिवर्तन आना चालू हो गया. अब उसमे पहले से ज्यादा गंभीरता आने लगी .उसके मन में भावों का सागर अँगडाइयाँ लेने लगता मगर कहे किससे ? कौन समझेगा? इसी उहापोह में धीरे धीरे रोहित ने अपने मन की बातें अपनी डायरी  में लिखनी शुरू कर दीं कविताओं के रूप में. ना जाने क्या- क्या लिखता रहता और कई बार पूजा को भी सुनाता तो वो बहुत खुश होती और रोहित को लिखने को प्रेरित करती रहती उसे क्या पता था कि रोहित के मन में क्या चल  रहा है या वो ये सब उसके लिए लिख रहा है . तो वो जैसे सबको वैसे ही रोहित से भी व्यवहार करती ………………

अब आगे ————–



समय अपनी रफ़्तार से गुजरता रहा और इस बीच रोहित की भी गृहस्थी बस गयी और वो दो प्यारे- प्यारे बच्चों की सौगात से लबरेज़ हो चुका था मगर रोहित ने कभी भी अपने ह्रदय के बंद दरवाज़े किसी के आगे नहीं खोले थे . ये तो उसका निजी प्रेम था , अपनी पीड़ा थी , अपनी चाहत थी जो उसे प्रेरित करती थी और उसने पूजा की प्रतिमा को अपने ह्रदय के मंदिर में विराजमान कर लिया था . उससे प्रेरित होकर ही अपने भावों को संगृहीत करता रहता था. 

अपनी गृहस्थी  से, अपनी जिम्मेदारियों से कभी मूँह नहीं मोड़ा . हमेशा हर जगह तत्पर रहता मगर अपने दिल के अन्दर किसी को भी झाँकने की इजाज़त नहीं देता यहाँ तक कि अपनी पत्नी निशा को भी नहीं मगर उसे उसके अधिकार और प्यार दोनों से कभी वंचित भी नहीं किया ……..उसे जो प्यार , सम्मान देना चाहिए और जो हर स्त्री की चाह होती है उसमे कभी कोई कमी नहीं आने दी .

रोहित ने प्रेम को , अपनी प्रेरणा को हमेशा जीवंत रखा अपने अहसासों में , अपनी कविताओं में , जहाँ वो अपने प्रेम के साथ एक ज़िन्दगी जी लेता था . एक दिन किसी काम से पूजा उनके घर आई और रोहित के कमरे में ही बैठी थी और जब निशा घर के कामों में लग गयी  तो पूजा मेज पर रखी चीजें देखने लगी और तभी उसके हाथ रोहित की डायरी हाथ लगी और वो उसे पढने लगी. पढ़ते – पढ़ते पूजा ये तक भूल गयी कि कितना वक्त हो गया और वो कब से बैठी है . उस डायरी में यूँ तो कवितायेँ ही थीं . उनसे से कुछ उसने सुनी भी थीं मगर तब कभी ध्यान नहीं दिया क्यूँकि सुनने और पढने में फर्क होता है मगर उस दिन जब वो पढ़ रही थी तो एक बात ने उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया कि जितनी भी कवितायें थी उसमे एक चीज़  खास थी ………..वो था एक नाम ———पूजा . और इस बात ने उसे अन्दर तक हिलाकर रख दिया. जब उसने देखा हर कविता में पूजा शब्द किसी ना किसी बहाने प्रयोग किया गया है तो वो सन्न रह गयी . अब पूजा इतनी नादान तो थी नहीं जो समझ ना पाती  इसका अर्थ. आखिर शादीशुदा औरत थी भरपूर गृहस्थी  की  मलिका और वैसे भी औरत की छठी इन्द्रिय बहुत तेज़ होती है जो उसे पहले ही आगाह कर देती है . ऐसा ही अब हुआ.


पूजा को समझ आने लगा था कि माज़रा कुछ और भी है मगर वो इसे किसी पर ज़ाहिर नहीं होने देना चाहती थी , पहले अपनी तरफ से इत्मिनान करना चाहती थी . अभी वो इन सब ख्यालों में डूबी हुई ही थी कि उसे पता भी ना चला कि कब से रोहित आकर  उसके पीछे खड़ा है . वो तो रोहित ने जब कहा , “पूजा जी , आज आपके कदम इस गरीब की दहलीज  तक कैसे आ गए ? और ये हमारी अमानत पर दिन -दहाड़े डाका कैसे डाल  रही हैं ?” तब पूजा चौंकी और खुद को संयत करते हुए बोली ,”रोहित , तुम क्या समझते हो , तुम्हारी चोरी कोई पकड़ नहीं सकता. पूजा नाम है मेरा , बड़े बड़ों को पानी पिला देती हूँ .”

इतना सुनते ही रोहित का चेहरा सफ़ेद पड़ गया उसने सोचा ना जाने पूजा को क्या पता चल गया , और जब मन में कुछ छुपा हो तब तो ऐसा होना स्वाभाविक है . क्या वाकई पूजा उसके दिल का हाल जान गयी? अभी रोहित ये सोच ही रहा था कि पूजा बोल पड़ी , ” अरे रोहित क्या हुआ? चोरी पकडे जाने से डर गए , देखो तो कैसे पसीने छूट रहे हैं ?” मगर जब पूजा को लगा कि कहीं रोहित को शक ना हो जाए एकदम बात पलटकर बोली , “क्यूँ बच्चू , इतनी सारी कवितायेँ लिख लीं और मुझे सुनाई भी नहीं , पहले तो बड़ी जल्दी- जल्दी सुनाते थे मगर अब तो इतने दिन हो गए क्या हुआ?” तब रोहित की सांस में सांस आई . थोड़ी देर हँसी – मजाक करके पूजा तो चली गयी मगर रोहित सोचने लगा कि आज तो बात आई- गयी हो गयी मगर पूजा जितनी होशियार है ये वो जानता था .कहीं वो उसके भीतर के प्रेम के दर्शन ना कर ले इसलिए थोडा संभलकर रहना होगा. उसका प्रेम उसके लिए पूजा थी और अपनी आराधना में वो पूजा का भी खलल नहीं चाहता था ……….उसे प्रेम का प्रतिकार नहीं चाहिए था सिर्फ पूजा का अधिकार ही चाहिए था और वो उसके पास था ही मगर अपने प्रेम को सार्वजानिक नहीं करना चाहता था …………प्रेम ने कब प्रेम के बदले प्रेम चाहा है वो तो प्रेमी की ख़ुशी में ही खुश रहता है ……….उसके अधरों की एक मुस्कान के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार रहता है ………जब उसका प्रेम इस ऊँचाई पर पहुँच गया तो वो नहीं चाहता था कि उसके प्रेम पर कोई ऊंगली उठाये इसलिए ……………….


क्रमशः ……………….