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Archive for जनवरी, 2010

बावरा मन

ये मन का उड़ता पंछी
आकाश को पाना चाहता है

जिस राह की कोई मंजिल नही
उस राह को तकना चाहता है

प्रणय बंधन में बँधे मनों को
प्रेम का नव अर्थ देना चाहता है

नामुमकिन सी तमन्ना को
आइना बनाना चाहता है

प्रणय बंधन में जकड़ी बेडी को
प्रेम की हथकड़ी लगाना चाहता है

तुमसे ही हर चाहत का अब
सिला पाना चाहता है

ह्रदय की कुँवारी इच्छाओं को
तुमसे ही मनवाना चाहता है

ह्रदय में उठते ज्वारों की
ख़ामोशी को सुनाना चाहता है

प्रेम के हर अधबुने फंदे को
तुमसे ही बुनवाना चाहता है

तन के रिश्ते से कुछ ऊपर उठकर
प्रेमी के भावों में भीगना चाहता है

तमन्नाओं की बढती अमरबेल तो देखो
साजन से तुमको प्रियतम बनाना चाहता है

अपनी नाकाम सी कोशिशों को
मोहब्बत का इक मुकाम देना चाहता है

साजन में छुपे प्रेमी की
परछाईं को पकड़ना चाहता है

तुम्हारी हर अदा में साजन
प्रेमी सा तसव्वुर चाहता है

ये प्रेम की अतल गहराइयों में डूबा मन
सूखे फूलों से खुशबू को पाना चाहता है

हाय ! ये प्रेम में बावरा मन
अनहोनी को होनी में बदलना चाहता है


क्षणिकाएं

तुम मानो या ना मानो
मुझे पता है
प्यार करती हो मुझे
तुम स्वीकारो या ना स्वीकारो
मुझे पता है
तुम्हारा हूँ मैं

अश्क भी आते नही
दर्द भी होता नही
तू पास होकर भी
अब पास होता नही

इक आती सांस के साथ
तेरे आने की आस बँधी
और जाती सांस के साथ
हर आस टूट गयी

तेरी पुकार में ही
दम ना था
मैं तो किनारे
ही खड़ी थी

किनारे की मिटटी को
छूकर तो देख
मेरे अश्क से
भीगी मिलेगी
दिल के तारों को
छेडकर तो देख
मेरे ही गीत
गाते मिलेंगे
लम्हों के पास
आकर तो देख
तेरे मेरे प्यार के
फ़साने ही मिलेंगे

या तो
याद बना ले मुझको
या याद बन जा
यादों के आने जाने से
पास होने का
अहसास होता है

मेरे हिस्से का आसमान

शाम के
धुंधलके में
एक टुकड़ा
आसमान
मेरे आँगन
में उतरा
मुझे पुकारा
मेरे हिस्से के
चाँद की
संगमरमरी
दुधिया रौशनी से
मेरे आँगन को
जगमगाया
तारों की
टिमटिमाती
मखमली
चादर पर
सुलाया
और ले गया
स्वप्नों के
जहान में
जहाँ बादलों
का एक टुकड़ा
लहलहाता सा
आया और
मेरे वजूद पर
इन्द्रधनुषी
रंगों सा
छा गया
मेरे स्वप्न को
हकीकत का
ताज पहना गया
मुझे मेरे
वजूद को
सरगम सा
सहला गया
मेरे बिखरे हुए
अहसासों को
महका गया
कुछ इस तरह
टुकड़ों में
बंटे अस्तित्व
को संपूर्ण
बना गया
और फिर
मेरे हिस्से का
आसमान
मुझे मिल गया

बेलगाम घोडा

ज़िन्दगी के अस्तबल का
बेलगाम घोडा
तमन्नाओं, आरजूओं ,
हसरतों के रथ पर
रथारूढ़ हो
पवनवेग से
दौड़ता जाता है
कहीं कोई अंकुश नही
बेपरवाह, लापरवाह
वक़्त के सीने पर
पाँव रख
आसमान को
छूने की
चाहत में
बिन पंख उड़ा जाता है
मगर एक दिन
पंख कटे पंछी की
मानिन्द
यथार्थ के धरातल पर
जब फडफडा कर
गिरता है
उस पल
हर आरजू, हर ख्वाहिश
धूल धूसरित हो जाती है
और वक़्त के हाथों
घायल ये जर्जर मन
अपने अस्तित्व बोध
को प्राप्त हो
अन्तस्थ में विलीन
हो जाता है

मत हवा दो

भड़कती चिंगारी
धधकता ज्वालामुखी
हर सीने में है
मत हवा दो

चिंगारी गर शोला
बन जाएगी
कहर बन बरस जाएगी
ज्वालामुखी गर
जो फट जायेगा
सैलाब इक ले आएगा
मत हवा दो

हवा का रुख
ज़रा तो देखा करो
कुछ तो सोचा
समझा करो
मत आदमी के
सब्र का इम्तिहान लो
गर एक बार
आदमी , आदमी बन गया
शोलो को उठाकर
हाथ में
धधकते ज्वालामुखी
की आग में
करके भस्म
भ्रष्टाचार, हिंसा,
स्वार्थपरता,
आतंकवाद की
हर शय को
खुद को वो
साबित कर देगा
हवाओं का रुख
भी बदल देगा
अब तो संभल जाओ
मत रेत के
महल बनाओ
मत आज़ादी का
गलत फायदा उठाओ
मत हवा दो
आदमी की
उस आग को
मत हवा दो ………

प्यार , प्यार होता है ———–शरीरी नही होता

प्यार , प्यार होता है
शरीरी नही होता
क्यूँ प्यार का
एक ही अर्थ
लगाती है दुनिया
प्यार बहन से, माँ से,
पत्नी से , प्रेमिका से ,
बेटे से , बेटी से
भी होता है
मगर प्यार, प्यार होता है
शरीरी नही होता
प्यार में
रिश्ते के नाम की
पट्टी हो
ये जरूरी तो नही
उसका अर्थ तो
एक ही होता है
भावनाओं की दिशा
तो वो ही है
फिर प्यार शब्द से
क्यूँ डरती है दुनिया
क्यूँ तोहमतों के बाज़ार
लगा देती है दुनिया
प्यार तो प्यार होता है
शरीरी नही होता
क्यूँ वासना के तराजू में
तोलती है दुनिया
क्यूँ अश्लीलता के पैबंद
लगाती है दुनिया
प्यार तो प्यार होता है
शरीरी नही होता
प्यार तो इबादत होता है
क्यूँ व्यापार बना देती है दुनिया
क्यूँ प्यार शब्द के
उच्चारण से ही
बबाल मचा देती है दुनिया
प्यार तो प्यार होता है
शरीरी नही होता
प्यार मीरा सा भी होता है
प्यार राधा सा भी होता है
प्यार सुदामा सा भी होता है
प्यार उद्धव सा भी होता है
प्यार यशोदा सा भी होता है
प्यार शबरी सा भी होता है
फिर क्यूँ प्यार को
हवस की वेदी पर
चढ़ा देती है दुनिया
प्यार तो प्यार होता है
शरीरी नही होता
क्यूँ इतनी सी बात
ना समझ पाती है दुनिया

मन की गलियाँ

मन की
विहंगम गलियाँ
और उसके
हर मोड़ पर
हर कोने में
इक अहसास
तेरे होने का
बस और क्या चाहिए
जीने के लिए
वहाँ हम
तुझसे बतियाते हैं
और चले जाते हैं
फिर उन्ही गलियों के
किसी मोड़ पर
और खोजते हैं
उसमें खुद को
ना तुझसे बिछड़ते हैं
ना खुद से मिल पाते हैं
और मन की गलियों की
इन भूलभुलैयों में
खोये चले जाते हैं

ज़रा सोचिये ———-ऐसा आखिर कब तक ?

लो फिर
एक ख्वाहिश
का जनम हो गया
एक बच्चे के
जनम के साथ
फिर से उसे
अपनी जड़
सोच के साथ
दुलारा जायेगा
अपने अरमानो को
उसकी देह पर
संवारा जायेगा
इक मिटटी का
पुतला समझ
निखारा जायेगा
उसकी इच्छाओं का
गला घोंट
फिर से उसे
मारा जायेगा
अपने सपनो को
पाने की चाहत में
अपने स्वाभिमान
की खातिर
दोजख की आग में
खरा सोना
बनाने के लिए
तपाया जायेगा
उसकी भावनाओं को
अपने अहम् की
तुष्टि के लिए
कुचला जायेगा
सिर्फ अपनी
इक कुंठित कमजोरी
को छुपाने के लिए
और अपनी
महत्तवाकांक्षाओं को
पाने के लिए
एक बार फिर
अपने ही लहू से
हाथों को धोया जायेगा
ऐसा आखिर कब तक होगा?
युग सृष्टा हो , क्यूँ
युग मारक बनते जाते हो
अधखिले फूलों को क्यूँ
अपनी आकांक्षाओं की
बलि चढाते हो
जागो , जागो
मत अपने ही हाथो
भविष्य को
मटियामेट करो
दिल के टुकड़ों का
मत अपने ही हाथों
क़त्ल करो
जागो , मेरे प्यारो
अब तो जागो

ये रचना मैंने उन सब मासूमों को समर्पित की है जो अपने माता पिता की आकांक्षाओं की बलि चढ़ गए । वो भी जीना चाहते थे मगर अपने माँ बाप की इच्छा के आगे अपनी इच्छाओं की जिन्होंने बलि चढ़ा दी और जब उनकी इच्छाओं पर खरे नही उतर सके तो अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली ताकि उनके माता पिता को समाज के आगे शर्मिंदा ना होना पड़े ………..कई दिनों से ये समाचार मन को उद्वेलित किये हुए थे कि पढाई के बोझ के कारण बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं मगर नही बोझ पढाई का कहाँ है ? बोझ तो आज इंसान की महत्त्वाकांक्षाएं बन गयी हैं जिनकी खातिर हम अपने ही बच्चों को मौत के मुँह में झोंक रहे हैं। एक छोटा सा प्रयास है सोये हुओं को जगाने का ।

मत करो ऐसा ………..

मैं कोई वस्तु नही
क्यूँ मेरी बोली लगाते हो
दुनिया की इस मंडी में
क्यूँ खरीदी बेचीं जाती हूँ
कभी धर्म के ठेकेदारों ने
मेरी बलि चढ़ाई है
कभी समाज के ठेकेदारों ने
मेरी बोली लगायी है
मैं भी इक इंसान हूँ
मुझमें भी खुदा बसता है
उसी खुदा की नेमत हूँ
जिसकी करते तुम आशनाई हो
फिर क्यूँ मुझे ही पीसा जाता है
क्यूँ मेरा ही गला दबाया जाता है
जननी भी हूँ , भगिनी भी हूँ
फिर भी भटकती फिरती हूँ
अपना अस्तित्व बचाने की चाह में
मर -मरकर भी जीती हूँ
मुझमें भी हैं अरमान पलते
मेरी भी हैं चाहतें मासूम
क्यूँ नही उन्हें मिली आज तक
दिल की जो गहराई है
क्यूँ अबला का तमगा चिपकाते हो
रिश्तों को क्यूँ बेडी बनाते हो
औरत हूँ मैं
सिर्फ भोग्या नही
मान क्यूँ नही लेते हो
कदम दर कदम चली मैं तुम्हारे
फिर क्यूँ नही मेरे साथ तुम चलते हो
अधिकरों की बात पर क्यूँ तुम
इतना शोर मचाते हो
कर्तव्यों की आंच पर क्यूँ
मेरी भावनाएं जलाते हो
क्या फर्क है मुझमें और तुममें
कौन सी कड़ी कमजोर है
फिर क्यूँ मुझे ही ये
ज़हर का घूँट पिलाते हो
मैं भी इक इंसान हूँ
मेरा भी लहू लाल है
मुझमें भी वो ही दिल है
बताओ फिर क्या फर्क है
मुझमें और तुममें
क्यूँ मुझे ही दोजख की
आग में जलाये जाते हो

मिलन को आतुर पंछी


ख्यालों की गुफ्तगू
तुझे सुनाऊँ
एक वादे की
शाख पर ठहरी
मोहब्बत तुझे दिखाऊँ
हुस्न और इश्क की
बेपनाह मोहब्बत के
नगमे तुझे सुनाऊँ

हुस्न : इश्क , क्या तुमने कल चाँद देखा ?
मैंने उसमें तुम्हें देखा
इश्क : हाँ , कोशिश की
लेकिन मुझे सिर्फ तुम दिखीं
चाँद कहीं नही

हुस्न : आसमान पर लिखी तहरीर देखी
इश्क : नहीं , तेरी तस्वीर देखी

हुस्न : क्या मेरी आवाज़ तुम तक पहुँचती है ?
इश्क : मैं तो सिर्फ तुम्हें ही सुनता हूँ
क्या कोई और भी आवाज़ होती है ?

हुस्न : मिलन संभव नही
इश्क : जुदा कब थे

हुस्न : मैं अमानत किसी और की
तू ख्याल किसी और का
इश्क : या खुदा
तू मोहब्बत कराता क्यूँ है ?
मोहब्बत करा कर
हुस्न-ओ-इश्क को फिर
मिलवाता क्यूँ नही है ?

इश्क के बोलों ने
हुस्न को सिसका दिया
हिमाच्छादित दिल की
बर्फ को भी पिघला दिया
इश्क के बोलो के
दहकते अंगारों पर
तड़पते हुस्न का
जवाब आया
तेरी मेरी मोहब्बत का अंजाम
खुदा भी लिखना भूल गया
वक़्त की दीवार पर
तुझे इश्क और
मुझे हुस्न का
लबादा ओढा गया
हमें वक़्त की
जलती सलीब पर
लटका गया
और शायद इसीलिए
तुझे भी वक़्त की
सलाखों से बाँध दिया
मुझे भी किसी के
शीशमहल का
बुत बना दिया
तेरी मोहब्बत की तपिश
नैनो से मेरे बरसती है
तेरे करुण क्रंदन के
झंझावात में
मर्यादा मेरी तड़पती है
प्रेमसिन्धु की अलंकृत तरंगें
बिछोह की लहर में कसकती हैं
हिमशिखरों से टकराती
अंतर्मन की पीड़ा
प्रतिध्वनित हो जाती है
जब जब तेरे छालों से
लहू रिसता है
देह की खोल में लिपटी
रूहों के यज्ञ की पूर्णाहूति
कब खुदा ने की है ?
हुस्न की समिधा पर
इश्क के घृत की आहुति
कब पूर्णाहूति बन पाई है
फिर कहो, कब और कैसे
मिलन को परिणति
मिल पायेगी
हुस्न – ओ – इश्क
खुदाई फरमान
और बेबसी के
मकडजाल में जकड़े
रूह के फंद से
आज़ाद होने को
तड़फते हैं
इस जनम की
उधार को
अगले जनम में
चुकायेंगे
ऐसा वादा करते हैं
प्रेम के सोमरस को
अगले जनम की
थाती बना
हुस्न और इश्क ने
विदा ले ली
रूह के बंधनों से
आज़ाद हो
अगले जनम की प्रतीक्षा में
मिलन को आतुर पंछी
अनंत में विलीन हो गए