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Archive for जुलाई, 2012

कृष्ण लीला ………भाग 59

राधा से तो प्रीत पुरानी थी
अगले दिन राधा दधि बेचने जब गयी
नन्द के मकान के इर्द गिर्द डोलने लगी
बावरी बन सबसे
मोहन का पता पूछने लगी
किसी ने देखा है मेरा श्याम
कहाँ है उसका घर ग्राम
कोई तो बता दो री
अरी मुझे श्याम के दरस करा दो री 
राधा ने लोक लाज बिसरायी है
मोहन के प्रेम रही बिकाई है
राधा की दशा देख
गोपियों ने पूछा
राधा  तू  क्या बेचती है
सुन राधा ने जवाब दिया
मोहन  मेरे तन मन में यूँ बसे
जैसे मेहँदी के पत्तों में
लाल रंग समाया हो
मेरी गति तुम क्या जानोगी
जब तक ना ऐसा रंग चढ़ाया हो
सखियों ने बहुतेरा समझाया
घर ग्राम का डर दिखलाया
पर राधा ने अपनी सुध बिसरायी
सिर्फ श्याम नाम की रटना लगायी
मुझे श्याम दरस करा दे कोई
श्याम विरह में हो गयी दीवानी
श्याम की हुई मैं मस्तानी
श्याम रंग ऐसे चढ़ जाये
श्यामा श्याम  रहूँ धराये
जब ऐसी दशा देखी सखियों ने
इसके रोम रोम में बसे हैं श्याम
कहना सुनना नहीं  आता काम
गर श्याम दरस न होंगे इसको
देह में प्राण ना रहेंगे इसके
ये देख एक सखी ने जा
सब हाल श्यामसुंदर को बतलाया
एक सुंदर- सी गोरी
नीली साडी पहने
मटकी सिर  पर रखे
तुम्हें पुकारा करती है
और वंशीवट को जाती है
जल्दी जाकर उस विरहिणी
का ताप मिटाओ
नहीं तो प्राणों का त्याग करेगी
तुम्हें देखे बिन ना जी सकेगी
इतना सुन मोहन वंशीवट को दौड़ गए
जा राधा का ताप मिटाया
नयन सुख दे ह्रदय ज्वाल को शांत किया
और इसी तरह मिलन का वचन दिया
मनोरथ पूर्ण कर राधा घर को चली
रास्ते में थी वो सखी खडी
खिला मुखकमल देख सब जान गयी
राधा को मोहन का नाम ले चिढाने लगी
जिसे देख राधा
नाक भौं सिकोडन लगी
छल बल से सखी पूछने लगी
मगर राधे भी चतुर निकली
मिलन का ना कोई हाल बताया
ललिता आदि सखियों ने
जब ये हाल जाना
तब सबने राधा से
मिलन का मन बनाया
सब सखियों को आई देख
राधे सारा माजरा समझ गयी
ललिता ने इधर उधर की बात कर
राधा का मन टटोला
मगर राधा ने मुख से
एक शब्द ना बोला
क्यों मौन धारण कर लिया है
किसे अपना गुरु बना लिया है
सुन राधा ने बतलाया
हँसी ठिठोली ना मुझे भाती है
ये सखी व्यर्थ इलज़ाम लगाती है
श्यामसुंदर का ना मुझे
स्वप्न में भी दर्शन हुआ
वृथा पाप क्यों लगाती है
बदनामी के डर से सकुचाई जाती हूँ
या रिस के कारण चुप  रह जाती हूँ
सुन ललिता ने बात को संभाला
सही कहती हो राधे
कहाँ ऐसे भाग्य हमारे
जो उनके दर्शन हो जायें
हम भी जीवन सफल बनाएँ
राधे तू बडभागिनी है
जो उनके मन को भाती है
इतना कह सखियाँ विदा हुईं
पर रंगे हाथों दोनों को पकड़ना होगा
मन में ठान गयीं
इधर श्यामा श्याम की प्रीत ने रंग जमाया
देखे बिना दोनों ने
इक क्षण चैन ना पाया
तब राधा ने यमुना में
स्नान का बहाना बनाया
और ललिता आदि सखियों को बुलाया
जैसे ही स्नान करके बाहर निकलीं
सामने नटवर नागर को
वंशी अधरों पर रखे 
राधा ने देखा
सुध बुध तन मन की भूल गयी
अँखियाँ उसी रूप में अटक गयीं
दोनों का हाल एक जैसा था
तभी ललिता ने राधा की दशा देख वचन उचारा
कल तो मिलन से मुकरती थीं
आज टकटकी बाँध देख रही हो
अब इन्हें मन में बसा लेना
तुम्हारे वास्ते ही हमने इन्हें बुलाया है
सुन ललिता की भेदभरी वाणी
राधा सकुचा गई
और मन ही मन पछता गयी
हाय ! आज तो चोरी पकड़ी गयी
इन नैनन की अजब जादूगरी  है
राधे का मलिन मुख देख
ललिता ने दिया दिलासा
फिक्र ना करो राधे
हम ना किसी को कुछ बतलायेंगी
ये साँवली मोहिनी सुरतिया का जादू  है
जिसने हर मन को मोह लिया है
चित्त सबका चुरा लिया है
ना जाने कौन  सी तपस्या तुमने की थी
जो इनके मन को भायी हो
सब इनको चाहें बड़ी बात नहीं
इनका प्रेम जिसे मिले
उससे बडभागी कौन दिखे
सुन राधा लज्जित हो बोली
मैंने तो मुख पर ना ध्यान दिया
मेरी दृष्टि तो भृकुटी पर ही अटक गयी
देख सखियाँ सराहना करने लगीं
क्रमश:……………

मेरी ज़िन्दगी का अविस्मरणीय पल

दोस्तों
ज़िन्दगी मे कब क्या घटित हो जाये कह नही सकते और हम सोचते भी नही और कुछ ऐसा हो जाता है । कभी सोचा ही नही था कि ऐसा भी होगा मगर एक दिन अंजू शर्मा का फोन आया और मुझे आमन्त्रित कर लिया कविता पाठ के लिये ………उफ़ ! लिखना और बात है मगर कविता पाठ करना और बात ……ज़मीन आसमान का अन्तर …………लिखने मे कोई गडबडी हो तो चल जाती है उसे ठीक किया जा सकता है मगर सबके सम्मुख कविता पाठ करना जैसे दसवीं की पहली बार कोई बोर्ड की परीक्षा दे रहा हो उस वक्त जो घबराहट होती है बस बिल्कुल वैसा ही हाल था कल कुछ मेरा भी ……यूँ तो सबसे बोल रही थी , हँस रही थी मगर अन्दर ही अन्दर एक डर था कि पता नही सबके सामने बोल भी पाऊँगी या नही ………क्योंकि पता ही नही था कि कैसे कविता पाठ किया जाता है और इसी उधेडबुन मे पहुँच ही गयी वहाँ और वक्त आ ही गया कविता पाठ का……सबसे पहले तो यही बताया कि ये मेरा पहला कविता पाठ है यदि कोई त्रुटि रह जाये तो झेल लीजियेगा और फिर जैसे तैसे प्रभु का नाम लेकर शुरु किया और जब पहली कविता जैसे ही सुनाई तो मेरे साथ बैठे आमन्त्रित प्रसिद्ध वरिष्ठ कवि लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जो बोल उठे कि आप कैसे कह रही हैं आपका पहला कविता पाठ है आप तो बहुत बढिया सुना रही हैं उनके इन शब्दों ने जैसे उत्साह सृजन किया और थोडा विश्वास बढा और उसके बाद एक एक करके पाँच कवितायें सुना दीं ………फिर कार्यक्रम के संचालक  मिथिलेश जी ने जब कहा कि आपने कहा कि आपका पहला कविता पाठ है तो उस हिसाब से तो ये बहुत बेहतर है ………ये सुनकर कितनी खुशी हुई बता नही सकती और आत्मविश्वास भी बढा ……ह्रदय से आभारी हूँ “डायलाग ” की और अंजू शर्मा की जिन्होने इतने सुन्दर कार्यक्रम का संयोजन किया तथा वहाँ उपस्थि्त सभी आयोजकों की कि मुझे ये मौका दिया और मुझे इस काबिल समझा ।
मेरा पहला कविता पाठ 
संचालक महोदय कार्यक्रम की शुरुआत करते हुये
 डरते- डरते आखिर शुरु कर ही दिया
कहते -कहते थोडा आत्मविश्वास बढा
और फिर समापन तक पहुँच ही गयी

 विवेक मिश्र जी का कविता पाठ
 
 खूबसूरत अन्दाज़-ए-बयाँ
दिल को भाती रचनायें मन्त्रमुग्ध कर गयीं 
 
 
 
 
 मिथिलेश जी कवियों को आमन्त्रित करते हुये 

 श्रोतागण खोये हुये
 कवि दीपक गुप्ता काव्य पाठ करते हुये 

 
हास्य कवि मे भी एक संवेदनशील कवि छुपा हुआ 
सोचने को विवश करती रचनायें 
 
 
 
प्रमोद कुमार तिवारी कविता पाठ करते हुये


कविता जो असर कर जाये 
सुनने वालों के दिलों पर छा जाये 
वो कूवत रखते हैं




 
 
विपिन चौधरी कविता पाठ करती हुयी
फ़ुर्सत के लम्हों मे 
एक एक कप चाय के साथ 
 राजीव जी फ़ोटो खिंचवाते हुये 🙂
 कोने मे खडी अजीत जी काले दुपट्टे मे ……जो पिछले 37 वर्षों से डायलाग कार्यक्रम चला रही हैं और नये नये कवियों को एक मंच प्रदान कर रही हैं
 
हरी साडी मे मिथिलेश जी की पत्नी अनीता जी, फिर अंजू जी , राजीव जी , जितेन्द्र कुमार पाण्डेय और मैं 
ममता किरण जी कविता पाठ करते हुये  
 
सुनिता कविता जी के साथ पहली मुलाकात को यादगार बनाते हुये 
 ये यादें हमेशा ज़हन मे सहेजी रहेंगी ……मुस्कान यही बताती है
संजू जी अपने अन्दाज़ मे मोबाइल पर 
 विपिन चौधरी के साथ अंजू
 अनौपचारिक लम्हे
 अंत मे लक्ष्मी जी अपनी कविताओं से सबको मंत्रमुग्ध करते हुये 

 ये अन्दाज़-ए-बयाँ है और
 
 कवि दीपक गुप्ता राजीव जी के साथ
 यादों मे समाये रहेंगे ये पल
अविस्मरणीय क्षण 


और हाँ दोस्तों ये सब फ़ोटो राजीव जी से लिये हैं आभारी हूँ उनकी 
मेरा कविता पाठ सुनने के लिये अगली पोस्ट की प्रतीक्षा कीजिये

आयाम बिंधने के

कभी कभी
बिना बिंधे भी
बिंध जाता है कहीं कुछ
सूईं धागे की जरूरत ही नहीं होती
शब्दों की मार
तलवार के घाव से
गहरी जो होती है
मगर
कभी कभी
शब्दों की मार से भी परे
कहीं कुछ बिंध जाता है
और वो जो बिंधना होता है ना
शिकायत से परे होता है
क्या तो तलवार करेगी
और क्या शब्द

नज़र की मार के आगे
बिना वार किये भी वार करने का अपना ही लुत्फ़ होता है ……..है ना जानम !!!!

ओह ! मेरी तिलस्मी मोहब्बत ढूँढ सको तो ढूँढ लेना कोई ऐयार बनकर …………

सुना था
जो चले जाते हैं
वापस नहीं आते
मगर जो कभी गए ही नहीं
वजूद पर अहसास बन कर तारी रहे
अब रोज उनके साथ
सुबह की चाय
सूरज की पहली किरण
पंछियों की चहचहाट
और एक खुशनुमा सुबह
का आगाज़ होता है
और दोपहर की
गुनगुनी धूप में
एक टुकड़ा मेरी खिड़की पर
रुक जाता है ………
उस टुकड़े में परछाइयाँ नहीं होतीं
लपेट लेती हूँ उसे
तेरे वजूद के इर्द गिर्द
और फिर सांझ ढले
सुरमई लालिमा का
एक टुकड़ा
जब तेरी हँसी सा खिलखिलाता है
रुक जाती है साँझ भी
मेरी दहलीज पर ……..इंतज़ार बनकर
तो कभी एक ख्वाब बनकर
तो कभी एक अहसास बनकर
तो कभी एक हकीकत बनकर
और मैं
ढूंढती नहीं कुछ भी उसमे
सिर्फ सहेजती हूँ हर पल को
सहेजती हूँ तेरे दिए
हर लम्हे की बेजुबान कड़ियों को
कहीं ज़माने की नज़र ना लग जाए
लगा देती हूँ ………मोहब्बत का टीका
और ढांप देती हूँ
मन के किवाड़ …………रात होने तक
और फिर
रात्रि की नीरव शांति में
निकालती हूँ तुम्हारी खामोश नज़र को
लो देख लो चाँद को
कर लो दीदार
भीग लो इसकी चाँदनी में
फिर ना कहना ……….बहुत इंतजार करवाया
और समेट लेती हूँ
तुम्हारी नज़र से गिरती ओस को
तुम्हारी नज़र के स्पर्श को
तुम्हारे अनकहे वक्तव्य को
तो बताओ तो ज़रा
तुम कहाँ हो मुझसे जुदा
हर पल , हर लम्हा
तेरा ही वजूद लिपटा होता है
मेरे साये से
और मैं खुद को ढूंढती हूँ
कभी चाय के प्याले में
कभी सुबह की ओस में
कभी दोपहर की धूप में
तो कभी सांझ की लालिमा में
क्या तुम्हें मिली मैं ?
कहीं किसी जन्म की हसरत बनकर
या किसी रांझे की हीर बनकर
या तुम्हारी नज़र का स्पर्श बनकर
ओह ! मेरी तिलस्मी मोहब्बत
ढूँढ सको तो ढूँढ लेना कोई ऐयार बनकर …………
जानते हो ना ………दीवानगियों के नाम नही हुआ करते

कृष्ण लीला ……भाग 58

अंतर्यामी प्रभु ने गोपियों का
सच्चा प्रेम लखा
गोपियाँ गौरस बेचने जाती थीं
सो राह में उनको रोक लिया
श्रीदामा सहित पांच हजार
बाल सखाओं संग
वृक्षों की  ओट में छिप गए
सोलह श्रृंगार कर जाती
गोपियों का रास्ता रोक लिया
हमारा दान दो तब जाने देंगे
कह गोपियों की राह रोक ली
दंड लेना राजा का धर्म है
और हम तुम कंस की प्रजा हैं
फिर किस अधिकार से तुमने
दंड है माँगा
गोपियों ने मनमोहन से प्रश्न किया
कल तक हमारा गौरस
चुरा -चुराकर खाते  थे
आज वन  में घेरकर लूटना
अच्छी बात नहीं
बचपन में तुमने हमें
बहुत था खिजाया
आज उसी का दंड
भरने का है समय आया
मैया से शिकायत कर
ऊखल से बंधवाया
आज ना बिना दंड दिए जाने देंगे
छोटे मुँह बड़ी बात ना लगती अच्छी
मोहन जो थोडा बहुत खाना चाहो
तो खाओ पर
दंड ना हम भरेंगी
कंस के पास जा सारा हाल कहेंगी
वो ही तुमको दंड देगा
सुन मोहन बोले
कंस से हम नहीं डरते हैं
सीधी तरह दान दे दो
नहीं दूध दही सब छीन लूँगा
फिर मैया के  पास जाओगी
रोकर  शिकायत लगाओगी
आज ना ऐसे जाने दूँगा
जो काम ना तुम्हारे बड़ों ने किया
तुम क्यों कलंक लगाते हो
ऐसे कैसे हमारा निर्वाह होगा
कैसे यहाँ हम रह पाएंगी
सुन मोहन बोले
तुम्हारे धमकाने से
ना अब मैं डरूंगा
जो तुम चली जाओगी
इस डर से क्या दंड छोड़ दूँगा
इसी तरह बहुत देर तक
ब्रजबाला मोहना संग झगडती रहीं
पर मन में खूब हुलसती रहीं
ये प्रीत की रीत निराली है
प्रकट में भेद दिखाती है
पर अंतःकरण में
हर भेद मिट जाता है
सिर्फ श्याम रूप ही भाता है
जब गोपियाँ नहीं मानी
कान्हा ने गौरस  छीन लिया
ग्वाल- बाल बंदरों में बाँट दिया
बचा- खुचा जमीन पर गिरा दिया
मटकियाँ सारी फोड़ दीं
धक्का -मुक्की में वस्त्र फाड़ डाले
तब गोपियों ने जा
यशोदा को हाल बतलाया
पर यशोदा ने ना विश्वास किया
तुम लोग मेरे मोहन को
पाप दृष्टि से देखती हो
खुद ही वस्त्र फाड़ कर 
मुझे उलाहना देती हो
ये सुन ब्रजबालाओं ने
यशोदा को बुरा – भला कहा
क्यों हम पर दोष लगाती हो
दस -पांच गौ ज्यादा होने से
क्या तुम्हारा रुतबा बढ़ गया
हम तुम जाति में बराबर हैं
अगर तुम्हारे पुत्र के
यही लक्षण रहे
तो गाँव छोड़कर चली जाएँगी
क्यों मुझे तुम धमकाती हो
जहाँ मन हो जाकर वहाँ बसों
पर तुम्हारे कारण
बेटे को ना घर से निकालूंगी
ये सुन लज्जित हो
ब्रजबाला घर को गयीं
सारे गाँव में ये बात फैल गयी
ये सुनकर सब ब्रजबालाओं
की इच्छा हुई
हम भी दूध दही बेचने जाएँ
और मनहर प्यारे की श्याम छवि
देख नेत्र जलन शांत करें
दूसरे दिन राधा सहित
  सोलह हजार गोपियाँ
गौरस बेचने चलीं
उनकी मनोदशा जान
कान्हा ने राह रोक ली
और अपनी दान लेने की
बात दोहरा दी
आज तुम्हारे यौवन का
दान लेकर रहूँगा
सुन गोपियाँ झगडने लगीं
फिर प्रभु की मनहर छवि में डूब गयीं
जब प्रभु ने उन्हें
अपने प्रति समर्पित पाया
तब अदृश्य रूप धर
सब गोपियों को ह्रदय से लगाया
ह्रदय ज्वाल जब शांत हुई
हर गोपी आनंदित हुई
यौवन दान और कुछ नहीं
तुच्छ वासनाओं को भस्मीभूत करना था
सो प्रभु के स्पर्श ने
आज मन , वचन , कर्म से
उन्हें शुद्ध किया था
देर हुई जान प्रभु ने
उनका दही – दूध का भोग लगाया
पर बर्तनों को उनके
तब भी भरा पूरा पाया
ये आश्चर्य देवता भी देख रहे थे
और ब्रजगोपियों की
सराहना कर रहे थे
मैंने सबका गौरस चखा
पर राधा की दही का स्वाद ना पाया
तब हँसकर राधे ने
अपने हाथों से दही था खिलाया
बाँकी चितवन से तभी
प्रभु ने राधा का मन मोह लिया
अब देर हुई घर जाओ
कह प्रभु ने उन्हें समझाया
पर गोपियों के मन को
ना ये प्रभु से वियोग भाया
हमने तुम्हें कठोर वचन कहे
प्रभु अपराध क्षमा करना
जब गोपियों ने वाक्य कहे
तब प्रभु  ने सारे भेद खोल दिए
तुम्हारा प्रेम देख
क्षण भर भी ना विलग रह पाता हूँ
तुम्हारा कठोर वचन सुनने ही तो
मैं वैकुण्ठ छोड़
पृथ्वी पर आता हूँ
अपना मन देकर तुमने
मुझको है पाया
ये सब जानो तुम
बस मेरी है माया
जब अपना चित्त फेर लोगी
तब अलग हो जाऊँगा
मगर तब  तक ना तुमसे
मैं भी विलग रह पाऊँगा
इतना कह मोहन वन को गए
मगर गोपियाँ तो अपने
घर ना जा बौरा गयीं
वृक्षों से पूछने लगीं
तुम गौरस मोल लोगे
कभी मोहन का नाम ले
पुकारा करती हैं
गौ रस कहते कहते
अरी कोई मोहन ले लो
श्याम ले लो , कहने लगती हैं
आठों पहर श्याम छवि
ह्रदय और आँखों  में
विराजा करती है 
घर वाले कितना समझायें
पर प्रीत ना बिसरा करती है
क्रमश: ………

हाँ, आ गया हूँ तुम्हारी दुनिया में

हाँ, आ गया हूँ 

तुम्हारी दुनिया में
अरे रे रे ………..
अभी तो आया हूँ
देखो तो कैसा 
कुसुम सा खिलखिलाया हूँ
देखो मत बाँधो मुझे
तुम अपने परिमाणों में 
मत करो तुलना मेरे 
रूप रंग की 
अपनी आँखों से
अपनी सोच से 
अपने विचारों से
मत लादो अपने ख्याल 
मुझ निर्मल निश्छल मन पर
देखो ज़रा 
कैसे आँख बंद कर 
अपने नन्हे मीठे 
सपनो में खोया हूँ
हाँ वो ही सपने
जिन्हें देखना अभी मैंने जाना नहीं है
हाँ वो ही सपने
जिनकी मेरे लिए अभी 
कोई अहमियत नहीं है
फिर भी देखो तो ज़रा
कैसे मंद- मंद मुस्काता हूँ
नींद में भी आनंद पाता हूँ
रहने दो मुझे 
ब्रह्मानंद के पास
जहाँ नहीं है किसी दूजे का भास
एकाकार हूँ अपने आनंद से
और तुम लगे हो बाँधने मुझको
अपने आचरणों से
डालना चाहते हो 
सारे जहान की दुनियादारी 
एक ही क्षण में मुझमे
चाहते हो बताना सबको
किसकी तरह मैं दिखता हूँ
नाक तो पिता पर है
आँख माँ पर 
और देखो होंठ तो 
बिल्कुल दादी या नानी पर हैं
अरे इसे तो दुनिया का देखो
कैसा ज्ञान है
अभी तो पैदा हुआ है
कैसे चंचलता से सबको देख रहा है
अरे देखो इसने तो 
रुपया कैसे कस के पकड़ा है
मगर क्या तुम इतना नहीं जानते
अभी तो मेरी ठीक से 
आँखें भी नहीं खुलीं
देखो तो
बंद है मेरी अभी तक मुट्ठी
बताओ कैसे तुमने 
ये लाग लपेट के जाल 
फैलाए हैं
कैसे मुझ मासूम पर
आक्षेप लगाये हैं 
मत घसीटो मुझको अपनी
झूठी लालची दुनिया में
रहने दो मुझे निश्छल 
निष्कलंक निष्पाप 
हाँ मैं अभी तो आया हूँ
तुम्हारी दुनिया में
मासूम हूँ मासूम ही रहने दो ना
क्यों आस  के बीज बोते हो
क्यों मुझमे अपना कल ढूंढते हो
क्यों मुझे भी उसी दलदल में घसीटते हो
जिससे तुम ना कभी बाहर निकल पाए
मत उढाओ मुझे दुनियादारी के कम्बल
अरे कुछ पल तो मुझे भी 
बेफिक्री के जीने दो 
बस करो तो इतना कर दो
मेरी मासूम मुस्कान को मासूम ही रहने दो..……….

प्रेमांजलि ……एक महक



साहित्य प्रेमी संघ के तत्वाधान में “ह्रदय तारों का स्पंदन ” एक प्रेमांजलि काव्य संग्रह है जहाँ प्रेम की प्रचुरता है . प्रेम जो अखंड बहता अंतर्नाद है फिर चाहे प्रेम का स्वरुप कोई भी हो —- चाहे मीरा का हो या राधा का , चाहे माँ का हो या बेटे का , चाहे प्रकृति का हो या पुरुष का . प्रेम एक सतत बहता दरिया है जो दर्द की गागर में जितनी डुबकी लगाता है उतना ही निखरता जाता है यहाँ अभिव्यक्ति को शब्दों की जरूरत नहीं होती सिर्फ ह्रदय तरंगों पर स्पंदनों के माध्यम से संदेशों का आदान – प्रदान हो जाता है , भावनाएं अभिव्यक्त हो जाती हैं और निराकार साकार हो जाता है ………..ये होती है प्रेम की दिव्य , अलौकिक शक्ति . और इसी शक्ति के कुछ सुमन इस काव्यमयी माला में गूंथे गए हैं जो आपके समक्ष हैं.यूँ तो यहाँ काफी खूबसूरत सुमन हैं मगर मैंने कुछ सुमन चुने हैं तो इसका ये मतलब नहीं बाकी में कोई कमी है बल्कि मेरी क्षमता ही इतनी है और फिर कुछ आपके पढने के लिए भी तो बचना चाहिए ना ……….

ललित शर्मा की “माँ, पत्नी और बेटी ” कविता ज़िन्दगी के हर आयाम को छूती प्रेम के तीन रूपों का निरूपण करती है साथ ही तीनों की महत्ता को दर्शाती कविता बताती ही कि एक बेटी के आने के बाद कैसे ज़िन्दगी में ठहराव आता है तभी तो कवि ह्रदय कह उठाता है

आज तेरे आने से मेरे जीवन में
कुछ स्थिरता बनी है
इन दो धुरियों के बीच
एक पुल का निर्माण हुआ है
क्योंकि तुम तीनों हो मेरी
जनक -नियंता और विधायिका

अर्चना चाव जी “मन की उड़ान ” के माध्यम से अपने विचारों को  परवाज दे रही हैं और तुलसी हो जाना चाहती हैं ……..तुलसी हो जाना नारी मन के भावों की पराकाष्ठा ही तो है

मन एक उन कटे पंखों से
जिन्हें क़तर दिया था मैंने कभी
मैं उड़ना चाहती हूँ आज

अनुलाता राज नायर की कविता “जिक्र” मन के तारों को छूकर स्पंदित कर देती हैं और प्रेम में वियोग के क्षणों को कितनी कोमलता से निरुपित  करती है

अपनी एक पुरानी डायरी मिल गयी मुझे आज
याद आया जिस सफ़हे पर जिक्र होता तुम्हारा
उसे मोड़ दिया करती थी मैं
मगर ये क्या
हर सफहा ही मुड़ा पाया

फिर ख्याल आया उस रोज का
जब तुम चल दिए थे
ना जाने क्या कहकर
या शायद कुछ कहा भी ना था
मगर वो मुड़ा पन्ना दिखा नहीं मुझे
शायद नहीं किया होगा मैंने , तेरे चले जाने का जिक्र……….

आह! प्रेम जो ना करवाए कम ही तो है

 हेमंत कुमार दुबे के भाव जीवन संगिनी को समर्पित जीवन संगिनी की महत्ता को दर्शाते हैं जो आज के हर इन्सान में होना निहायत जरूरी है

कोई कोना कोई जगह ऐसी नहीं
जो भर ना सके तुम्हारे प्रेम से
समुन्दरों की लहरों को भी
शांत कर सकती है
तुम्हारी प्रेम भक्ति

प्रेम की शक्ति कितनी गहन होती है इसका दिग्दर्शन कराती “जीवन संगिनी ” कविता नारी के गौरव को ना केवल बढाती है बल्कि उसके मान सम्मान और उसकी अहमियत भी दर्शाती है .

प्रदीप तिवारी की कविता ” मेरा बेटा” आज के निर्मोही संबंधों का दिग्दर्शन कराती है साथ ही प्रेम कब और कैसे बोझ में तब्दील हो जाता है इसका बेहद मार्मिक चित्रण है

जब वो छोटा बच्चा थ
बड़ा होने को तड़पता था

आज अब वो बड़ा हो गया
दुनियादारी जान गया वो
मैंने उसका भार उठाया
मुझे भी भार मन गया वो
बुढ़ापे में उम्मीद थी उससे
पर जीते जी मुझे मार गया वो

स्वाती वल्लभा राज की “तकिये गीले हैं ” एक संवेदनशील मन की कोमल सी अभिव्यक्ति है

अश्रु  क्या हैं
मन मंदिर में टूटे हुए
सपनो की छवि
वास्तविकता के  पटल पे
जो बनते और बिगड़ते हैं

अर्चना नायडू की ” अमर प्रेम की अतृप्त बूँद ” प्रेम के  विभिन्न रूपों को जीती ,सांस लेती रचना अतृप्ति के अहसास को बेहद संजीदगी से उकेरती है

प्रेम है अँधा, जानकर बन गयी मैं, सूरदास
पर दृष्टिहीन मैं, उसे ना देख सकी

प्रेम है निशब्द -शब्द ,रचकर, तुलसी के दोहे
शब्दहीन ….मैं उसे ना जान सकी

प्रेम को अटल सत्य मान, गौतम बनकर
उसके शाश्वत सत्य को ना पहचान सकी

नीरज द्विवेदी की “प्रेमी ज़माना होता” वर्तमान के हालातों और इंसानियत का जिक्र करती कविता सोचने को मजबूर करती है

पेड़ मुस्लिम हैं ना हिन्दू हैं
अब भी जंगले में रहता
पशु पक्षी और मौसम को
जीवन का दान ही करता

क्या करें सभ्यता का अब
जब सभ्य सभ्य से लड़ता
अधनंगा जब आदि मनुज
बस यहाँ शांति से रहता

ना होता कोई कत्लेआम
बस प्रेमी ज़माना होता

रागिनी मिश्रा की “स्पर्श”  दिल को स्पर्श करती बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति है जो स्पर्श की भावना को चाँद शब्दों में अभिव्यक्त करने में सक्षम हुई है

स्पर्श
कौन सा प्रथम ?
मन का या
तन का ?
 
ये तो नहीं जानती
पर
जो
छू जाए
वही …..
प्रथम
अंतिम
जीवन पर्यंत
और
मरणोपरांत भी

राजेश कुमारी की ” कोई नाम लिखो” मोहब्बत की एक जीती जगती मिसाल है . जो चले गए उसी के गम में ना ज़िन्दगी को रुसवा किया जाए और मोहब्बत ही उसे उसके लिए प्रेरित करे ……वो ही तो वास्तविक मोहब्बत होती है

देखो आज भी उस पत्थर पर
जिसके नीचे मैं सोयी हूँ
लिख रहे हो रंगहीन आँसुओं से
मेरा नाम
तुम कहते हो की
तुम्हारे रंग खो गया हैं कहीं
मेरी गुजारिश है तुमसे
की आज से तुम अपने दिल पर
कोई नया नाम लिखो
धीरे धीरे खोये रंग भी लौट आयेंगे
और मेरी रूह को चैन भी मिल जायेगा

 सुध्मा आहुति की “तुम्हारे लिए वो प्यार है ” एक अलग ही अंदाज़ में प्रस्तुत शिकायत सी है जो शिकायत भी नहीं है शायद प्रेम की ही एक अनुभूति है

होंगी तुम्हारे लिए मेरी कवितायेँ
कागज़ में लिखी चाँद पंक्तियाँ
मेरे लिए यह मेरी धडकनें हैं
सिर्फ तुम ही नहीं सुन पाते हो
वरना सभी को हर पंक्ति में
मेरी धडकनें सुनाई देती हैं

तो दूसरी कविता “मैं खामोश रहूंगी ” ख़ामोशी की जुबाँ को व्यक्त करती शानदार अभिव्यक्ति है

इस बार सिर्फ खामोश रहूंगी
क्योंकि , मैं जान गयी हूँ
ख़ामोशी ही अब तुमसे मुझको अभिव्यक्त करेगी
ख़ामोशी ही मेरे शब्दों के बोझ से तुमको मुक्त करेगी
इस बार नहीं कहूँगी ……
मैं खामोश रहूंगी ………

सीमा गुप्ता की “मृगतृष्णा” इस शब्द को सार्थक करती एक खूबसूरत रचना है

कैसी ये मृगतृष्णा मेरी
ढूँढा तुमको तकदीरों में
चंदा की सब तहरीरों में
हाथों की धुंधली लकीरों में
मौजूद हो तुम मौजूद हो तुम
इन आँखों की तस्वीरों में

रोशी अग्रवाल की ” मधुमास” वास्तव में मधुमास के अर्थ को बताती एक सार्थक अभिव्यक्ति है

प्यार का रंग भी होता है बड़ा अद्भुत और नवीन
एक दूसरे को स्व -समर्पण,साथी को आत्मसात करना ही है प्यार
बदल जाता है इस फलसफे से ही जीवन का हर रंग और ढंग

लक्ष्मी नारायण लहरे की “सुरमई सुबह” एक मधुर मुस्कान चेहरे पर अंकित कर देती है और बताती है कि जब जीवन में किसी मासूम मुस्कान का आगमन हो जाता है तो कैसे जीवन बदल जाता है


 मेरा नन्हा यज्ञेय
हँसते हुए ………
किलकारी ले रहा था
वह सुबह मेरे जीवन की
नयी जंग बन गयी
चेहरे पर मुस्कान थी पर
जिम्मेदारी की इक ………..नयी आगाज़ बन गयी

रेखा श्रीवास्तव ने “बाती का दर्द” के माध्यम से आज नर और मादा के फर्क के साथ मादा के महत्त्व को जिस खूबसूरती से पिरोया है वो काबिल-ए-तारीफ है . बाती को बिम्ब बना भविष्य के खतरे के प्रति सचेत किया है

ये पुल्लिंग की आखिरी खेप
फिर धारा पर
कोई सृष्टि ना होगी
क्योंकि गर्भ ही ना होगा
तो कौन गर्भवती और कैसा प्रजनन ?

और अंत में सत्यम की ” तू साथ मेरे ” अलौकिक प्रीत का प्रतिबिम्ब है

आ जा ना आ जा ना
एक बार इधर भी आ जाना
जो तेरे दरस को तरसे हैं सदियों से
उन नैनों की प्यास बुझा जाना
मन की धरती पर आज प्रभु
हरियाली बन कर छा जाना

और साथियों इसी संग्रह में मेरी भी निम्न पांच कवितायेँ सम्मिलित हैं

१) सिर्फ तुम्हारे लिए ……….जस्ट फॉर यू
२) एक खोज, एक चाहत और एक सच
३) प्रेम का कोई छोर नहीं होता
४) क्या फिर ऋतुराज का आगमन हुआ है ?
५) दोस्ती , प्रेम और सैक्स

अब दीजिये आज्ञा …….फिर मिलेंगे किसी और सफ़र में किसी और मंजिल के साथ

कृष्ण लीला ……भाग 57

कार्तिक सुदी दशमी को
नन्दबाबा ने एकादशी व्रत किया
द्वादशी मे व्रत का पारण करने हेतु
पहर रहते यमुना मे प्रवेश किया
वरुण देवता के दूत पकड कर ले गये
इधर सुबह हुयी तो
नन्दबाबा ना कहीं मिले
सारे मे हा-हाकार मचा
तब कान्हा ने यमुना मे प्रवेश किया
इधर वरुण देवता ने
नन्दबाबा को अपने सिंहासन पर बैठा
स्वागत सत्कार किया
और कृष्ण अपने पिता को लेने आयेंगे
इस बहाने हमे भी
उनके दर्शन होंगे
ये आस लगाये बैठ गया
प्रभु सीधे वरुण लोक मे पहुँच गये
उन्हे देख वरुण देव अगवानी को गये
प्रभु को रत्नजडित सिंहासन पर बैठा
चरण धो विधिवत पूजन अर्चन किया
मनचाही इच्छा पूर्ण कर जन्म सफ़ल किया
प्रभु से कर जोड प्रार्थना करने लगा
प्रभु मेरे दूत से गलती हुयी
पर यही गलती से मेरे
पुण्य उदय हुये
जो आपके चरण यहाँ पडे
हम सबने दर्शन पाया है
ये सब चरित्र नन्दबाबा ने देखा
और परब्रह्म ने मेरे घर अवतार लिया
ये सोच हर्षाने लगे
वापस आ सब गोपों को सारा हाल सुनाया
ये सुन गोपों ने कृष्ण को घेर लिया
कन्हैया वो तुम्हारे पिता हैं
इसलिये उन्हे वैकुण्ठ के दर्शन कराये हैं
क्या हम तुम्हारे कुछ नही लगते
सब शिकायत करने लगे
तब कन्हैया ने सबको
आँखें बंद करने को कहा
आँखे बंद करते ही
सारा दृश्य बदल गया
प्रभु की संकल्प शक्ति से ही तो
इस संसार का निर्माण हुआ
फिर वैकुण्ठ दर्शन कौन सी बडी बात थी
वहाँ जाकर गोपों ने देखा
सभी चतुर्भुजी रूप हैं
सबकी वेशभूषा , शक्ल आदि
कान्हा का ही रूप थीं
सब कान्हा की सेवा करते थे
वहाँ शान्त रस समाया था
जैसे ही गोप ग्वालों ने
कान्हा को देखा
और आवाज़ देना चाहा
वैसे ही वहाँ सबने
इशारों से चुप कराया
वहाँ तो बोलना मना था
शान्त रस मे तो
इक के मन की बात
दूजे को समझ आ जाती है
वहाँ बिना कहे सुने ही बात हो जाती है
 ये देख गोपवृंद घबरा गए
कर जोड़ प्रार्थना करने लगे
हमें तो अपना ब्रज की प्यारा  है
कम से कम वहाँ हमारा
कान्हा तो हमारा है
जिससे जैसे चाहे हम
लड़ते और खेलते हैं
यदि ये ही वैकुण्ठ है
जिसने हमें हमारे कान्हा से
है दूर किया
तो नहीं चाहिए हमें
ये वैकुण्ठ का भोग विलास
जैसे ही सबने प्रार्थना की
वो दृश्य लोप  हुआ
और घबराकर सबने
चक्षुओं को खोल दिया
सामने कान्हा को
उसी रूप में देखा
जैसे रोज देखा करते थे
और जैसे  ही उस छवि को देखा
सारे ग्वाल बाल लिपट गए
और कान्हा से बोले
भैया हमें ना अब  भरमाना
हमें नहीं चाहिए तुम्हारा वैकुण्ठ
हमें  तो इसी रूप में है तुम्हें पाना
कुछ मोहन ने अपनी मोहिनी डाली
और पल में सब कुछ भुला डाला
इधर नंदबाबा ने भी
वरुनलोक का हाल
स्वप्नवत जाना
और सारा ब्रह्मज्ञान
प्रभु लीला से भूल गए
और कान्हा को वैसे ही
पुत्रवत समझने लगे 
 
क्रमश:………

मैं आग पहन कर निकली हूँ

मैं आग पहन कर निकली हूँ

मगर ना झुलसी हूँ ना जली हूँ
जो सीने में था बारूद भरा
चिंगारी से भी ना विस्फोट हुआ
जब आग को मैंने लिबास बनाया
तब बारूद भी मुझसे था शरमाया
ये कैसी आग की आँख मिचौली है
जो जलाती है ना रुलाती है 
ना भड़कती है ना सिसकती है
पर मुझमे ऐसे बसती है
गोया सांसों की माला पर 
कोई सुमरता हो पी का नाम 
उफ़ ……………………..
देखा है कभी सिसकती रूहों पर आग का मरहम 

ख्वाब क्यूँ?……………एक प्रश्नचिन्ह ?

ख्वाब क्यूँ?

एक प्रश्नचिन्ह ?
बात तो सही है
क्यूँ देखें ख्वाब?
क्या जरूरी है 
ख्वाब पूरे हों ही 
मगर फिर भी
ख्वाब तो देखे जाते हैं
शायद उन्ही के सहारे 
ज़िन्दगी गुजार जाते हैं
आधी अधूरी सी 
अधखिली सी ज़िन्दगी
अधूरे ख्वाब की अधूरी तस्वीर
जब बन जाती है ज़िन्दगी
शायद “ख्वाब क्यूँ” का सही उत्तर 
दे जाती है ज़िन्दगी 
यूँ तो ख्वाबों के गुंचे 
रोज खिलते हैं ख्वाबगाह में
मगर हर ख्याली गुंचा 
चढ़ सके देवता पर 
जरूरी तो नहीं
कुछ ख्वाब के गुंचे 
अर्थियों की शोभा बनते हैं
तो भी क्या हुआ
अपने होने को तो 
सिद्ध कर देते हैं
बस होना…… सिद्ध होना जरूरी है
अस्तित्व है…….ये जरूरी है
फिर चाहे ज़िन्दगी क्षणिक ही क्यों ना हो
चाहे ख्वाब की हो या हकीकत की
मगर देखे ख्वाब ही बुलंदियां पाते हैं
जिन ख्वाबों का अस्तित्व ही ना हो
वो कहाँ कोई मुकाम पा सकते हैं
शायद इसीलिए ख्वाब का होना जरूरी है
यूँ ही नहीं कण कण में परमात्मा बसता है
अस्तित्व तो उसका भी है ही ना
बेशक दिखे ना दिखे मगर 
अपने होने का अहसास करा देता है
और उसे पाने की चाह बलवती हो जाती है
बस वैसे ही 
ख्वाब है तो चाहत है
चाहत है तो पाने की तमन्ना है
तमन्ना है तो खोज है
खोज है तो अस्तित्व है 
अस्तित्व है तभी आकार निर्माण होता है
फिर ख्वाब तो ख्वाब है
निराकार में भी साकार होता है 
तो फिर कैसे ख्वाब के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दूं ?