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Archive for मार्च, 2009

काश !

काश ! दिल न होता
तो यहाँ दर्द न होता

काश ! आँखें न होती
तो इनमें आंसू न होते

काश ! ज़िन्दगी न होती
तो यहाँ कोई मौत न होती

काश ! दिन न होता
तो यहाँ कभी रात न होती

काश ! बसंत न होता
तो यहाँ कभी पतझड़ न होता

काश ! प्यार न होता
तो यहाँ कभी जुदाई न होती

काश ! हम न होते
तो यहाँ कुछ भी न होता

टुकडियां

एक कल
कल आया था
एक कल
आज आया है
एक कल
कल आएगा
ये कल कल
में जीवन
यूँ ही गुजर जाएगा

इस बार
मौसम की तरह
मैं भी बदली
कभी कली सी खिली
कभी पतझड़ सी मुरझाई
कभी बदली सी बरसी
कभी कुहासे सी शरमाई

बिना कहे भी बात होती है
बिना मिले भी मुलाक़ात होती है
जब बंधे हो दिल के तार दिल से
तब बिन सावन भी बरसात होती है

दिल ने दिल से पूछा
दिल ने दिल से बात की
दिल ने दिल को आवाज़ दी
दिल से दिल की आवाज़ आई
दिल को न ढूंढ यारा
अब दिल दिल न रहा

अपनी बेबसी को बयां करती हो
ज़ख्म दिल के छुपा लेती हो
अंखियों तुम हो कमाल की
नज़रों में ठहरे मोतियों को भी
पलकों के कोरों में दबा लेती हो

मधुरिम पल

कुसुम कुसुम से ,कुसुमित सुमन से
तेरे मेरे मधुरिम पल से
अधरों की भाषा बोल रहे हैं
दिलों के बंधन खोल रहे हैं
लम्हों को अब हम जोड़ रहे हैं
भावों को अब हम तोल रहे हैं
नयन बाण से घायल होकर
दिलों की भाषा बोल रहे हैं
हृदयाकाश पर छा रहे हैं
मेघों से घुमड़ घुमड़ कर
तन मन को भिगो रहे हैं
पल पल सुमन से महक रहे हैं
मधुरम मधुरम ,कुसुमित कुसुमित
दिवास्वप्न से चहक रहे हैं
तेरे मेरे अगणित पल
तेरे मेरे अगणित पल

मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही

मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही
क्यूँ मुझे कमतर समझा जाता है
क्या मुझमें वो जज़्बात नही
क्या मुझमें वो दर्द नही
जो बच्चे के कांटा चुभने पर
किसी माँ को होता है
क्या मेरा वो अंश नही
जिसके लिए मैं जीता हूँ
मुझे भी दर्द होता है
जब मेरा बच्चा रोता है
उसकी हर आह पर
मेरा भी सीना चाक होता है
मगर मैं दर्शाता नही
तो क्या मुझमें दिल नही
कोई तो पूछो मेरा दर्द
जब बेटी को विदा करता हूँ
जिसकी हर खुशी के लिए
पल पल जीता और मरता हूँ
उसकी विदाई पर
आंसुओं को आंखों में ही
जज्ब करता हूँ
माँ तो रोकर हल्का हो जाती है
मगर मेरे दर्द से बेखबर दुनिया
मुझको न जान पाती है
कितना अकेला होता हूँ तब
जब बिटिया की याद आती है
मेरा निस्वार्थ प्रेम
क्यूँ दुनिया समझ न पाती है
मेरे जज़्बात तो वो ही हैं
जो माँ के होते हैं
बेटा हो या बेटी
हैं तो मेरे ही जिगर के टुकड़े वो
फिर क्यूँ मेरे दिल के टुकडों को
ये बात समझ न आती है
मैं ज़िन्दगी भर
जिनके होठों की हँसी के लिए
अपनी हँसी को दफनाता हूँ
फिर क्यूँ उन्हें मैं
माँ सा नज़र ना आता हूँ


मंथन

मंथन किसी का भी करो
मगर पहले तो
विष ही निकलता है
शुद्धिकरण के बाद ही
अमृत बरसता है
सागर के मंथन पर भी
विष ही पहले
निकला था
विष के बाद ही
अमृत बरसा था
विष को पीने वाला
महादेव कहलाया
अमृत को पीने वालों ने भी
देवता का पद पाया
आत्म मंथन करके देखो
लोभ , मोह , राग ,द्वेष
इर्ष्या , अंहकार रुपी
विष ही पहले निकलेगा
इस विष को पीना
किसी को आता नही
इसीलिए कोई
महादेव कहलाता नही
आत्म मंथन के बाद ही
सुधा बरसता है
इस गरल के निकलते ही
जीवन बदलता है
पूर्ण शुद्धता पाओगे जब
तब अमृत्व स्वयं मिल जाएगा
उसे खोजने कहाँ जाओगे
अन्दर ही पा जाओगे
आत्म मंथन के बाद ही
स्वयं को पाओगे
मंथन किसी का भी करो
पहले विष तो फिर
अमृत को भी
पाना ही होगा
लेकिन मंथन तो करना ही होगा

सोच ज़रा

सोच ज़रा
कितना दिल
दुख होगा
जब तेरी
खामोशी ने
उसको डंसा होगा
कुछ पल तो
साथ बिता लेते
उसके दिल का
हाल जान लेते
उसके ज़हर को
अमृत बना देते
उसे उसके दर्द से
निजात दिला देते
तो कुछ ही पलों में
दर्द के सागर में
ज़ज्बातों के
तूफ़ान की कश्ती
ठहर जाती
वो अपने दरिया में
सिमट जाती
तेरे साथ होने के
अहसास से ही
वो हर ज़हर को भी
अमृत समझ पी जाती
सोच ज़रा
कितना दिल दुख होगा

क्या मैं इंसान हूँ ?

क्या मैं इंसान हूँ?
क्या मुझमें
संवेदनाएं हैं ?
जब किसी का दर्द
मुझे विचलित नही करता
किसी के दुःख से
मैं द्रवीभूत नही होता
किसी की खुशी से
मैं खुश नही होता
किसी के लिए भी
मेरे दिल में
अहसास नही होते
मैं अपनी ही धुन में
बेखबर ,
अपने सुख के लिए ही
जीना चाहता हूँ
क्या मैं इंसान हूँ?
ना अपना देखता हूँ
ना पराये को
जो हूँ बस मैं हूँ
मैं किसी भी
हादसे को देखकर भी
अनदेखा कर देता हूँ
मगर अपने साथ हुए
हर हादसे के प्रति
मैं दुखित हो जाता हूँ
कभी बोध नही कर पाता
दुख तो सबका बराबर है
क्या मैं इंसान हूँ?
एक धमाके से
घरों को बरबाद करता हूँ
घरों के सूने आँगन से
सिसकती आहों से
मुझे कोई सरोकार नही
बस मैं जो चाहता हूँ
वो पाना चाहता हूँ
फिर चाहे किसी का
आँगन सूना हो
या मांग सूनी हो
कोई अनाथ हो या
किसी के सर से ही
बाप का साया उठे
मुझे तो सिर्फ़ अपना
आँगन सजाना है
अपने दर्द से निजात पाना है
क्या मैं इंसान हूँ?
संवेदनहीन ,संवेदनाशून्य,
निर्मम ,निष्ठुर
क्या मैं इंसान हूँ ?

दोहरी ज़िन्दगी

दोहरी ज़िन्दगी जीते हम लोग
हर पल चेहरे बदलते हैं
अपने लिए एक चेहरा
और दुनिया के लिए
दूसरा रखते हैं
अपने मापदंड अलग रखते हैं
अपने ख्वाबों के लिए
अपनी हर चाहत के लिए
हर हथकंडा अपनाते हैं
मगर जब वो ही ख्वाब
कोई दूसरा देखे तो
मापदंड बदल जाते हैं
फिर भी दुनिया
ना जान पाती हैं
चेहरे के पीछे छिपे चेहरे को
ना पहचान पाती हैं
हम अपने लिए जो चाहते हैं
क्यूँ दुनिया को ना दे पाते हैं
दूसरे का ख्वाब आते ही
क्यूँ हमारे अर्थ बदल जाते हैं
कब तक हम चेहरे बदल पाएंगे
दोहरी ज़िन्दगी की आग में
इक दिन ख़ुद ही जल जायेंगे
उस दिन ना हम
दुनिया के रह पाएंगे
और ना ही अपने आप के
फिर किस भुलावे में
जिए जाते हैं
दोहरी ज़िन्दगी की आग से
क्यूँ ना निकल पाते हैं
दोहराव कब टिका हैं
एक दिन तो आख़िर
मिटा ही हैं
हम भी कब तक
टिक पाएंगे
इक दिन इस दोजख से
शायद निकल पाएंगे

कशमकश

कुछ कहने और न कहने के बीच झूलते हम
कभी हकीकत बयां नही कर पाते
कुछ लम्हों को जी नही पाते
कुछ लम्हों को जीना नही चाहते
कभी खामोश रहकर सब कह जाते हैं
कभी बोलकर भी कुछ कह नही पाते
न जाने कैसी विडम्बना में जीते हैं
न ख़ुद को जान पाते हैं
न दूसरों को जानने देते हैं
कभी किसी अनचाही दौड़ में
शामिल हो जाते हैं तो
कभी चाहकर भी कहीं
पहुँच नही पाते
न जाने किस चाह में जीते हैं
न जाने किस मय को पीते हैं
मगर फिर भी खाली ही रहते हैं
कभी कुछ पा नही पाते
किसी को कुछ दे नही पाते
न जाने किस भूख ने सताया है
न जाने किसकी तलाश में निकले हैं
न खो पाते हैं
न खोज पाते हैं
बस सिर्फ़
रो पाते हैं
और
उलझनों में ज़िन्दगी
गुजार जाते हैं
ना हंस पाते हैं
ना हंसा पाते हैं
सिर्फ़ भावनाओं में
बह जाते हैं या
कभी किसी को
बहा ले जाते हैं
मगर कभी
पार नही पाते हैं
सिर्फ़ कशमकश में
जीते हैं और मरते हैं
सिर्फ़ कशमकश में………………………

टीस

खुशियाँ भी कभी
खुशी से न मिलीं
जब भी मिली
कोई खुशी
अपने साथ
लाखों ग़मों की
सौगात लेकर मिली
दामन था छोटा
किस किस को सँभालते
जो था ज्यादा
उससे ही दामन भर गया
और खुशी जा जाने
कब फिसल गई
हर खुशी ऐसे ही
फिसल जाती है
दामन में न समाती है
ये तो वो अमृत की बूँद है
जो ज़हर में पड़ जाती है
फिर भी असर न दिखाती है