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Archive for अगस्त, 2012

और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो

 राघवेन्द्र अवस्थी जी से किसी ने ये प्रश्न किया तो उन्होने तो अपनी वाल पर जवाब दे दिया मगर हमारे भी भाव उतरे बिना ना रह सके तो प्रस्तुत है हमारे भावों का सागर …………

 तुमने पूछा
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन सी कविता
लिखूँगा मैं ?
उस पर तुम्हारी जिद
अभी सुना दो
जाने के बाद कैसे पढूंगी मैं
उफ़ ……….आखिर ले ही लिया इम्तिहान मोहब्बत का
आखिर ज़िन्दा ही आग लगा दी चिता को
और देखो अब सिंक रहा हूँ मैं
तुम्हारे तपाये तवे की तपिश में
कितना दुरूह है ये ख्याल
कभी सोचा तुमने ?
और मुझे कह रही हो
लिखो वो जो तुम तब मह्सूसोगे
जो कल होना है
वो आज महसूसना ………क्या इतना आसान है?
उन पलों से गुजरना
जैसे दोज़ख की आग में जल रहा हो कोई
फिर भी तुम्हारी ख्वाहिश है ना
तो कोशिश जरूर करूंगा
शायद इसके बाद ना फिर कभी कुछ कह सकूंगा
शायद तुम्हारे जाने के बाद भी नहीं ………..
शायद आखिरी कलाम हो ये मेरा
मेरी मोहब्बत के नाम
चलो बाँध देता हूँ बाँध आखिरी मोहब्बत के नाम


जाने के बाद……………
 
मेरी खामोश मोहब्बत की दस्तखत थीं तुम

जिसमे मैंने पलों को नहीं संजोया था
नहीं संजोया था तुम्हारी हँसी को
तुम्हारी चहलकदमी को
तुम्हारी उदासी या खिलखिलाहट को
नहीं थी तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी प्रियतमा
जीवन संगिनी या कोई अप्सरा
जो संजो लेता यादों के आशियाने में तुम्हें
ये तुम जानती थीं तुम क्या थीं मेरे लिए
थीं क्यों कहूं तुम क्या हो मेरे लिए
क्योंकि तुम गयी कहाँ हों
यहीं तो हो …………मेरे वजूद में
अपनी उपस्थिति का अहसास करतीं
तभी तो देखो ना
सुबह सुबह सबसे पहले
प्रभु सुमिरन , दर्शन के बाद
रोज लग जाता हूँ उसी तरह गृहकार्य में
और समेट लेता हूँ
सुबह का दिव्य आलोकित नाद अपने अंतरपट में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे तुम किया करती थीं
तो बताओ कहाँ जुदा हो तुम
जो सहेजूँ यादों के छोरों  में
दिन के चढ़ने के साथ बढ़ता ताप
मुझे बैठा देता है अपने पास
जहाँ मैं अपनी कल्पनाओं को उड़ान देता हूँ
और पता ही नहीं चलता
वक्त खुद गुजरा या मैंने उसे रुसवा किया
क्योंकि मेरे पास आकर
वक्त भी ख़ामोशी से मुझे ताकता है
कि कब सिर उठाऊँ और उसे आवाज़ दूं
मेरी साधना में बाधा नहीं ड़ाल पाता
तो खुद मायूस हो ताकता रहता है मुझे
बिल्कुल वैसे ही जैसे जब तुम थीं
तो यूँ ही साध्नामग्न हो जाती थीं
और वक्त तुम्हारे पायताने पर
कुलाचें भरता रहता था
बताओ फिर कैसे वजूद जुदा हुए
तुम मुझमे ही तो सिमटी हो
कोई भी कड़ी ऐसी नहीं जो भिन्न हो
फिर कहो तो कौन किसे याद करे
यहाँ तो खुद को ढूँढने निकलता हूँ
तो तुम्हारा पता मिल जाता है
और मैं तुम्हारे घर की चौखटों पर
अपने अक्स से बतियाता हूँ
पता ही नहीं चलता
कौन किससे बतिया रहा है
सुना है दीवाना कहने लगे हैं कुछ लोग
मगर नहीं जानते ना
तुम मेरी लिए सिर्फ प्रेयसी या पत्नी ही नहीं थीं
बल्कि मेरी प्रकृति बन गयी थीं / नहीं बन गयी हो
तभी तो कब कोई भी वजूद
अपनी प्रकृति बदल सकता है
और सुना है इन्सान का सब कुछ बदल सकता है
मगर प्रकृति नहीं ……….स्वाभाविक होती है
शायद तभी तो नहीं खोजता तुम्हें
नहीं ढूँढता तुम्हें घर आँगन में
तस्वीरों के उपादानों में
यादों के गलियारों में
तन्हाई की महफ़िलों में
क्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो ………ओ मेरी जीवनरेखा !!!!!!!!

यहाँ तो सावन भादों को बरसते एक उम्र गुजर गयी

बरसात के बाद भी
थमी नहीं मेरी रूह
बरसती ही रही
हर मीनार पर
हर दीवार पर
हर कब्रगाह पर
हर ऐतबार पर
हर इंतजार पर
जरूरी तो नहीं ना
हर रूह पर छाँव हो जाए
और वो भीगने से बच जाये
मेरी रूह
मेरी कहाँ थी
मेरी होती तो
छुपा लेती आँचल में
समा लेती सारी कायनात उसकी आँखों में
जज़्ब कर लेती हर कतरा शबनम का
अपनी पनाहों में
आसमाँ से चुन लाती कुछ
दाने रौशनी के
टांग देती सितारे बना उसके
बेतरतीब दामन में
सजा देती उसकी
माँग में मोहब्बत का सिन्दूर
लेकर लालिमा दिनकर से
कर देती विदा दुल्हन बना
अजनबियत के साथ
मगर ये सब तो तब होता ना
गर मेरी रूह मेरी होती
वो तो तब ही छोड़ गयी मुझे
जब से तुमसे नज़र मिली
अब खाली खोली है
भीगते अरमानों की
जिसमे बीजता नहीं कोई बीज
फिर चाहे कितनी ही बरसात हो ले
जरूरी तो नहीं सावन का बरसना
यहाँ तो सावन भादों को बरसते एक उम्र गुजर गयी
मगर मेरी रूह को ना कहीं पनाह मिली
देखा है कभी रूहों का ऐसा सिसकना …………जहाँ रूह भी ना अपनी रही
बंद कोटरों के राज बहुत गहरे होते हैं ……सीप में छुपे मोती जैसे
और मोतियों को पाने के लिए गहराई में तो उतरना ही होगा

धन्य हो तुम ! जो मुझे विस्तार देते हो

मैं

भाव साम्राज्य का पंछी
तुम पंखों की परवाज हो
मैं आन्दतिरेक का सिन्धु
तुम मोती खोजते गोताखोर
मैं सरगम की सिर्फ एक तान 
तुम उसका बजता जलतरंग
कैसे तुमसे विलग मैं
कैसे मुझसे पृथक तुम 
तुम बिन शायद अस्तित्व 
मेरा शून्य बन जाये
शायद ही कोई मुझे समझ पाए
या मेरे भावों में उतर पाए
धन्य हो तुम ! जो मुझे विस्तार देते हो
मेरी कृति के बखिये उधेड़ देते हो
मुझे और मेरी कृतित्व  को 
एक नया रूप देते हो 
सोच को दिशा देते हो 
अर्थों को तुम मोड़ देते हो 
शब्दों की यूँ व्याख्या करते हो 
जैसे रूह को स्पंदन देते हो 
जहाँ मौन भी धड़कने लगता है
ज़र्रा ज़र्रा बोलने लगता है 
मूक को भी जुबाँ मिल जाती है 
यूँ हर कृति खिल जाती है 
तुम संग मेरा अटूट नाता
गर मैं हूँ रचयिता 
तो तुम हो पालनहार 
कैसे तुमसे विमुख रहूँ
कैसे ना तुम्हें नमन करूँ
मुझसे ज्यादा मुझे विस्तार देते हो 
मेरी कृति को मुझसे ज्यादा समझते हो 
हाँ मैं हूँ कवि सिर्फ कवि 
और तुम हो समीक्षक ………..मेरी विस्तारित आवाज़

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी ………भाग 64

पिछली बार आपने पढा कि प्रभु मधुबन मे कदम्ब के नीचे आँख बंद किये अधरों पर वेणु धरे मधुर तान छेड रहे हैं जिसे सुनकर गोपियाँ बौरा जाती है और जो जिस हाल मे होती है उसी मे दौडी आती है ………अब उससे आगे पढिये…………




जब प्रभु ने आँखें खोलीं
गोपियों को अपने सम्मुख पाया
प्रभु ने गोपियों का स्वागत किया
आओ आओ गोपियों
तुम्हारा स्वागत है
कहो कैसे आना हुआ
जैसे  ही बोला
गोपियों के अरमानों पर तो
जैसे पाला पड़ गया
जैसे कोई आपको घर बुलाकर पूछे
कहो क्यों आये हो
तो इससे बढ़कर उसका
और क्या अपमान होगा
इधर प्रभु अपनी रौ में बोले जाते थे
अच्छा अच्छा तुमने
ये शरद पूर्णिमा की रात्रि नहीं देखी
वो ही देखने आई हो —-देखो देखो
अच्छा तुमने ये यमुना का
कल कल करता निनाद नहीं सुना
सुनो सुनो
अच्छा तुमने ये रंग बिरंगे
पुष्पों से लदे वन की शोभा नहीं देखी
अच्छा अब तो तुमने सब देख  लिया ना
अब अपने अपने घर जाओ
तुम्हारे घरवाले राह देखते होंगे
अकेली स्त्री का रात को घर से निकलना ठीक नहीं
तुम्हें लोकनिंदा का तो
डर रखना चाहिए था
जब प्रभु ने बहुत उंच नीच समझाई
मगर गोपियाँ तो सिर्फ
अश्रुजल बहाती रहीं
निगाह नीची किये
अंगूठे के नाखून से
जमीन कुरेदती रहीं
तब प्रभु बोले
मैं इतनी देर से बोले जाता हूँ
कुछ  तुमको सुनाई भी देता है
या तुम सारी गूंगी हो गयी हो
और ये बताओ तुम
अंगूठे  के नाखून से
ये क्या कर रही हो?
इतना सुन बाकी गोपियाँ तो खामोश रहीं
मगर एक चंचल चपल
गोपी बोल पड़ी
दिखता नहीं क्या
गड्ढा कर रही हैं
प्रभु ने पूछा ,”क्यों”
बोली, कभी तो गड्ढा होगा
उसी में हम सब दब मरेंगी
क्योंकि तुझ जैसे
निर्दयी  से पाला जो पड़ गया है 
एक तो पहले आवाज़ देकर बुलाते हो
और अब हमें ऊंची ऊंची
ज्ञान की बातें सुनाते हो
हम तो अपने पति , बच्चे
भाई बांधव , घर परिवार
सब छोड़कर आई हैं
अपना सर्वस्व  समर्पण तुम्हें किया है
और अब तुम्हीं हमें
दुत्कारते हो
तो बताओ अब हम कहाँ जायें
वापस जा नहीं सकतीं
और तुम स्वीकारते नहीं
तो इसी गड्ढे में ही दब मरेंगी
इतना सुन प्रभु बोले
गोपियों मै तुम्हारे भले की बतलाता हूँ
अपने पति की आज्ञा में
चलना ही पत्नी का परमधरम होता है
पति चाहे जैसा हो उसकी
सेवा सुश्रुषा करना ही उसको शोभा देता है
ऐसे अर्धरात्रि में पर पुरुष के पास जाना
कुलीन स्त्रियों को ना भाता है
मैं तुम्हें एक ऐसे जोड़े
के बारे में बतलाता हूँ
पतिव्रत धर्म की महिमा समझाता हूँ
एक पति पत्नी का जोड़ा
रोज हवन करता था
और नियम से गुजर बसर करता था
एक दिन वो आँगन में
गेहूं बिन रही थी
तभी पति लकड़ियाँ काट कर आया
और पत्नी के घुटने पर
सिर रख कर लेट गया
तभी उसको गहरी नींद ने दबोच लिया
इधर उनका ढाई वर्ष का पुत्र
आँगन में खेल रहा था
वहीँ पास में
अग्निकुंड जल रहा था
बच्चा खेलते खेलते
हवनकुंड पर चढ़ गया
इधर माँ का ध्यान जैसे ही
बच्चे पर गया
वो उठकर बचाने को आतुर हुई
तभी देखा पतिदेव सो रहे हैं
अगर इन्हें जगाकर उठती हूँ
तो पत्नीधर्म खंडित होता है
और नहीं उठती तो
मेरा पुत्र हवनकुंड की भेंट चढ़ता है
बेटे तो और मिल जायेंगे
मगर पति ना रहा तो कहाँ जाऊंगी
सोच वो अश्रु बहाने लगी
तभी दो बूंद अश्रुओं को
पतिदेव के मुख पर गिर पड़ीं
पति एकदम उठा और बोला —क्या हुआ ?
मगर क्या हुआ  वो तो ना उसने जवाब दिया
बल्कि हाय मेरा लाल हाय मेरा लाल
कहती दौड़ पड़ी
तब तक बच्चे ने
हवनकुंड में
छलांग लगा दी थी
जैसे ही हवनकुंड की तरफ गयी
देखा कि बच्चा अग्निदेव  के
हाथों में खेल रहा है
पतिव्रता  स्त्री के बच्चे को
मैं कैसे जला सकता हूँ माँ
तुम्हारा पुत्र जीवित सकुशल है
कह उनका पुत्र उन्हें दिया
इतना कह प्रभु ने बतलाया
देखो पतिव्रत धर्म की
कितनी भारी महिमा है
जिसके आगे मृत्यु भी शीश नवाती है
देवता भी हार मान जाते हैं
ये पतिव्रत धर्म की महिमा न्यारी है
इतना कह प्रभु चुप हुए
ये सुन एक चपला सी
गोपी बोल उठी
पंडित जी महाराज
आपने कथा सुनाई
क्या हम भी एक कथा सुना सकते हैं
सुन कान्हा बोले , सबको बोलने का अधिकार है
तुम भी जो चाहे कह सकती हो
तुमसे भी ज्यादा
पतिव्रत धर्म को मानने वाला
जोड़ा हमारे पास है
वो ऐसी पतिव्रता नारी थी
जो पति के उठने से पहले उठ जाती
उसको  नहलाने के बाद नहाती
उसे भोजन कराने के बाद
स्वयं खाती
उसके सोने के बाद ही खुद सोती
अर्थात हर कार्य
पति के बाद ही करती
एक बार कार्यवश
उसके पति को विदेश जाना पड़ा
सुन वो उदास हुई
कैसे अब मैं रहूँगी
अपनी व्यथा पतिदेव को कही
तब उसके पति ने
अपना एक फोटो उसे दिया
तुम अपनी सारी क्रियाएं
इस फोटो के साथ किया करना
इसी को मेरा प्रतिरूप मान लेना
ये आश्वासन दे पति
विदेश चला गया
अब वो फोटो को ही
सब कुछ मानने लगी
हर क्रिया उसी के साथ करने लगी
उसे सुलाकर खुद सोती
उसे भोग लगाकर खुद खाती
बरसों यूँ ही बीत गए
एक दिन आया दीपावली का त्यौहार
उसने बनाये तरह तरह के पकवान
जैसे भी भोग लगाने बैठी
वैसे ही विदेश गया पति
भी आ पहुँचा
और उसने दरवाज़ा खटखटा दिया
देवी दरवाज़ा खोलो
देवी दरवाज़ा खोली
इतना कह गोपी पूछ बैठी
कहो पंडित जी महाराज
अब वो नारी क्या करे
उस फोटो  वाले को भोग लगाये
या जो दरवाज़े पर खड़ा है
उसे अन्दर बुलाये
ये सुन भगवान की
बोलती बंद हो गयी
और मंद मंद मुस्कुराने लगे
गोपी बोली यूँ मुस्कुराने से
ना काम चलेगा
मुँह भी खोलना पड़ेगा
इतना सुन कान्हा बोले
इसमें कौन सी बड़ी बात है
अगर बड़ी बात नहीं
तो बताते क्यों नहीं
गोपी ने उच्चारण किया
अरे जब असली का पति
आ ही गया
तो फिर नकली के
फोटो के पति की क्या जरूरत बची
उठे ,जाये और दरवाज़ा खोले
और असली पति को ही भोग लगाये
कान्हा ने जवाब दिया
सुन गोपी बोली
लो पंडित जी महाराज
तुम्हारा ही सवाल
और तुम्हारा ही जवाब
हम भी तो यही कहती हैं
जब हमें हमारे
परम पति मिल ही गए हैं
अर्थात तुम मिल गए हो
तो फिर इन माटी के पुतलों
अर्थात फोटो के पतियों
का हम अब क्या करें
हमने तो अपना सर्वस्व 
तुम्हें ही समर्पित किया है
तुम ही तो हमारे प्राण धन हो
जिसे पाने को हमने
मानव जन्म लिया
जब तुमसे नाता जोड़ लिया
जब तुम हमारे बन गए
फिर इस स्वप्नवत
संसार का हम करें क्या
जिस कारण जीव जन्म लेता है
जब अपना होना जान लेता है
फिर ना उसका संसार से
कोई प्रयोजन रहता है
सब संसार उसे मिथ्या ही दिखता है
सब दृष्टि विलास हो जाता है
जब जीव और ब्रह्म का मिलन हो जाता है





क्रमश:…………

कस्तूरी जो बिखरी हर दिल महका गयी

कस्तूरी जो बिखरी हर दिल महका गयी
यूँ लगा चाँद की चाँदनी दिन मे ही छा गयी

विमोचन कस्तूरी का 

दोस्तों 22 अगस्त शाम साढ़े चार बजे हिंदी भवन में कस्तूरी के विमोचन का  था जिसमे प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह जी, कवि डॉ श्याम सखा श्याम जी, श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जी मुख्य अतिथि थे  । अंजू चौधरी और मुकेश कुमार सिन्हा के सम्पादन मे हिन्द युग्म के सौजन्य से कस्तूरी ने अपनी महक से सारे हिन्दी भवन को महका दिया। सबसे पहले कवियों द्वारा काव्य पाठ किया गया मगर नामवर सिंह जी को जल्दी जाना था इस वजह से काव्य पाठ बीच मे रोक कर उनको सबने सुना । उसके बाद बाकी के कवियों की बारी आयी । सभी ने अपने अपने विचारों से अवगत कराया। कवि डॉ श्याम सखा श्याम जी ने अपने अन्दाज़ मे कविता , गज़ल आदि की बारीकियों से अवगत कराया साथ मे चुटीले अन्दाज़ मे अपनी रचनायें प्रस्तुत कीं। इसी प्रकार
श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जी ने बहुत गहनता से कस्तूरी के कवियों की कविताओं के बारे मे अपने विचार प्रस्तुत किये साथ ही अपने विचारों से भी अवगत कराया। 
उसके बाद आखिरी मे हमारा नम्बर आया और तब समझ आया हाय रे ये एल्फ़ाबैटिकल आर्डर ………हम फ़ंस गये उसमे और 
दिल के अरमाँ आंसुओं मे बह गये ………
दिल की ये आरजू थी नामवर सिंह जी के आगे काव्य पाठ करें ………
मगर ये ना थी हमारी किस्मत कि उनके आगे काव्य पाठ कर पाते ………
हमसे का भूल हुयी जो ये सज़ा हमका मिली……
अभी हम ये सोच ही रहे थे कि नामवर सिंह जी चल दिये और चलते चलते हमने उनसे अपनी किताब पर उनके हस्ताक्षर ले लिये तो जाके लगा चलो वो नही तो ये ही सही भागते चोर की लंगोटी ही सही 🙂 ………दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है ……है ना 🙂 

बस उसके बाद जैसे ही मदन साहनी जी ने आवाज़ दी तो हम चौंक गये कि हमे ही दी है ना या किसी और को ………आखिर वन्दना गुप्ता के आगे उन्होने डाक्टर लगा दिया ……सबसे पहले तो वो ही गलतफ़हमी दूर की कि हम तो एक साधारण गृहिणी हैं मगर लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जी कब पीछे रहने वाले थे तपाक से बोले तो क्या हुआ हो जायेंगी ………सोचिये ज़रा क्या हाल हुआ होगा हमारा ………बडे बडे दिग्गज इस तरह हौसला अफ़ज़ाई जहाँ कर रहे हों तो वहाँ जोश बढना लाज़िमी है ही ………और बढ गया हमारा भी जोश और हमने भी एक कविता का पाठ आखिर कर ही दिया …………जिसे आप यहाँ सुन भी सकते हैं और चित्रों के साथ पूरे कार्यक्रम का आनन्द भी ले सकते हैं …………लिंक लगा रही हूँ ………
उसके बाद अंजू जी और मुकेश जी के कविता पाठ के बाद धन्यवाद देते हुये कार्यक्रम का समापन हुआ ……उसके बाद जलपान के साथ सभी दोस्तों ने एक दूसरे के साथ अपनी यादों को संजोया जो उम्र भर साथ रहेंगी।


अब वहाँ तो हमारा नम्बर आखिरी था 
सोचा यहाँ तो पहले ही लगा दें क्या फ़र्क पडता है 
ये कविता पाठ का शुरुआती लम्हा 
जब हमने मदन साहनी जी को बताया 
 कि हम तो एक गृहिणी हैं 🙂
 
ये वो लम्हा है जब लक्ष्मी वाजपेयी जी ने हौसला अफ़ज़ाई की
 

यहाँ हम भी लगे थे अपने काव्य पाठ मे 

 

मदन साहनी जी कार्यक्रम का संचालन करते हुये

 

विमोचन के लम्हात

 

 विमोचन से पहले के कुछ पल

 कस्तूरी के विमोचन के अभूतपूर्व क्षण

 

ये नामवर सिंह जी के साथ वहाँ उपस्थित प्रतिभागी 

कवियों की ज़िन्दगी के स्वर्णिम पल




यहाँ फ़ुर्सत मे राजीव जी के साथ 

रंजना भाटिया जी के साथ



तीन देवियाँ तीन रंग


ध्यानपूर्वक सुनते हुये


 आनन्द द्विवेदी जी गज़लों को पेश करते हुये 



लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जी अपना वक्तव्य देते हुये


गुंजन अग्रवाल काव्य पाठ करती हुईं



डाक्टर श्याम सखा श्याम जी अपने चुटीले अन्दाज़ मे 


साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर नामवर सिंह जी का वक्तव्य


तराजीव तनेजा जी और संजू जी के साथ कुछ पल

मुकेश कुमार सिन्हा अपना भाषण देते हुये


मुकेश और अंजू समारोह शुरु होने से पहले फ़ुर्सत के पलो मे 



सुनीता शानू जी के साथ संजू जी


मेड फ़ार ईच अदर


आनन्द द्विवेदी जी अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ 
वन्दना ग्रोवर जी के साथ



वन्दना सिंह जी काव्य पाठ करते हुये जिनसे पहली बार मिलना हुआ
वरना तो फ़ेसबुक के माध्यम से ही एक दूसरे को जानते थे


ये राजीव जी का कमाल समेट लिया एक ही चित्र मे तीन अन्दाज़
पीछे सफ़ेद सूट मे मुकेश की श्रीमति जी और साथ मे गुंजन


हाय ! कौन ना मर जाये इस मुस्कान पर 

राजीव तनेजा जी अशोक जी और लक्ष्मी शंकर जी के साथ 




लगता है अपनी कातिलाना अदाओं से 
आज घायल करके ही रहेंगी दोनो मोहतरमा

मीनाक्षी काव्य पाठ करते हुये

ये निरुपमा को तो लगता है जैसे कोई खज़ाना हाथ लग गया है 
देखिये तो सही ये मुस्कान ……क्या यही नही कह रही


कवि सुजान के साथ राजीव जी

हम बने तुम बने एक दूजे के लिये 

कस्तूरी की महक मे खोये सभी

तो दोस्तों ये था कस्तूरी के विमोचन का आँखों देखा हाल 
फिर मिलेंगे किसी और सफ़र मे 
तब तक आप इसका आनन्द लीजिये  

चित्र ………राजीव तनेजा जी साभार 

हे भ्रष्टाचार ! तुम्हें नमन है ……….

अब आदत हो गयी है घोटालों की
इस देश के गद्दारों की
असर नही अब होता हम पर
मोटी चमडी हमारी भी है
तभी तो छूटे कलमाडी भी है
मै ,मेरा घर ,मेरे बच्चे से इतर
जब तक ना सोच पायेंगे
यूँ ही सिर्फ़ सियासतदारों को कोसे जायेंगे
जब तक खुद ना हाथ मे
मशाल उठायेंगे
एक नया बिगुल नही बजायेंगे
यूँ ही लूटे खसोटे जायेंगे
थ्री जी हो या खेल घोटाला
या हो कोयला आबंटन
क्या फ़र्क पड जायेगा
कल दूजा रूप बदल कर फिर
नया घोटाला  नज़र आयेगा
अब इस देश मे कोई भी
भ्रष्टाचारी बनने से ना बच पायेगा
क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा का गुण
तो हर देशवासी अपनायेगा
वैसे भी जब सैंयां भये कोतवाल
तो डर काहे का ……कह
हर कोई भ्रष्टाचार का परचम लहरायेगा
मगर भ्रष्टाचार ना मिट पायेगा
वैसे भी क्या मिल जायेगा  ईमानदारी से
दो वक्त की रोटियों का जुगाड़ भी ना हो पायेगा
मगर सफेदपोश भ्रष्टाचारियों को तो
कोई ना हाथ लगाएगा
जो ये सच जान जायेगा
क्यों ईमानदारी की आँच पर सिंकने जायेगा
हल खोजना हो तो इतिहास खंगालना पड़ेगा
फिर एक भगतसिंह पैदा करना पड़ेगा
तब कहीं जाकर मुखौटा बदलेगा
जब तक ना सोई आत्मा जागेगी
जब तक ना फिर से कोई
भगतसिंह सा
सियासतदारों के कानों मे
बम ना फ़ोडेगा
तब तक ना मौसम यहाँ का बदलेगा
तब तक यूँ ही मेरा मन गाता रहेगा
अब आदत हो गयी है घोटालों की
इस देश के गद्दारों की…………
हे भ्रष्टाचार ! तुम्हें नमन है ……….

तुम पहले और आखिरी सम्पुट हो मेरी मोहब्बत के

चाँद
तुम पहले और आखिरी
सम्पुट हो मेरी मोहब्बत के
जानत हो क्यों ?
मोहब्बत ने जब मोहब्बत को
पहला सलाम भेजा था
तुम ही तो गवाह बने थे
शरद की पूर्णमासी पर
रास – महोत्सव मे
याद है ना …………
और देखना
इस कायनात के आखिरी छोर पर भी
तुम ही गवाह बनोगे
मोहब्बत की अदालत में
मोहब्बत के जुर्म पर
मोहब्बत के फसानों पर
लिखी मोहब्बती तहरीरों के
क्योंकि
एक तुम ही तो हो
जो मोहब्बत की आखिरी विदाई के साक्षी बनोगे
यूँ ही थोड़े ही तुम्हें मोहब्बत का खुदा कहा जाता है
यूँ ही थोड़े ही तुम्हारा नाम हर प्रेमी के लबों पर आता है
यूँ ही थोड़े ही तुममे अपना प्रेमी नज़र आता है
कोई तो कारण होगा ना
यूँ ही थोड़े ही तुम भी
शुक्ल और कृष्ण पक्ष मे घटते -बढ़ते हो
चेनाबी मोहब्बत के बहाव की तरह
वरना देखने वाले तो तुममे भी दाग देख लेते हैं
कोई तो कारण होगा
गुनाहों के देवता से मोहब्बत का देवता बनने का …………….
वरना शर्मीली ,लजाती  मोहब्बत की दुल्हन का घूंघट हटाना सबके बस की बात कहाँ है ……है ना कलानिधि!!!!

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी ………भाग 63

लो आ गयी शरद पूर्णिमा की रात्रि
जब चन्द्रमा  अपनी सोलह
कलाओं से परिपूर्ण था
 प्रभु ने योगमाया का आह्वान किया
योगमाये ! कामदेव का
मानमर्दन करना है
और गोपियों का भी
मनोरथ पूर्ण करना है
अब तुम्हें सबसे पहले
मेरा मन बनाना है
क्योंकि प्रभु तो निर्विकार
निर्लेप मनरहित होते हैं
उनमे ना प्रकृति प्रदत्त कोई भी तत्व होते हैं
जैसे बच्चे के साथ हम खेलने के लिए
अपना मन भी बालक जैसा बनाते हैं
वैसे ही आज प्रभु ने भी
अपने प्रेमियों संग खेल करने हेतु
मन बनाने की इच्छा रखी
क्योंकि बिना माया के तो
प्रभु कुछ ना कर पाते हैं
इसलिए योगमाया को समझाते हैं
योगमाये ! आज तुम्हें दिव्य रात्रि बनानी है
रात्रि यूँ तो बारह घंटे की होती है
मगर तुम्हें
बारह घंटे की ना बनाकर
छः माह की बनानी है
कामोद्यीपन के सारे साजो समान भी सजाने हैं
वासंतिक मौसम का आह्वान करो
शीतल सुगन्धित मधुर पवन बहती हो
यमुना का स्वच्छ शीतल जल कलकल निनाद करता हो
मधुर भ्रमर गुंजार करते हों
वृक्ष फलों के बोझ से झुक रहे हों
वन उपवन में बिन मौसम भी
सभी फूल खिल रहे हों
वृक्ष बेमौसम फल दे रहे हों
नयनाभिराम दृश्य बना हो
संगीत नृत्य का भी
सारा सामान जुटा हो
भांति भांति के वस्त्राभूषण
का ढेर लगा हो
हर कोना रसमयी ध्वनि से
गुंजारित हो रहा हो
आज सभी कार्य ऐसे  करने हैं 
कामदेव को कहने का ना मौका मिले
कि समय कम था या
कामोद्यीपन का कोई
सामान कम था
जैसा प्रभु ने समझाया था
वैसा ही वातावरण वहाँ पाया था
ब्रज क्षेत्र तो छोटा पड़ता इसलिए
योगमाया ने
दिव्य वृन्दावन बनाया था
क्योंकि ५६ करोड़ तो
यादवों की स्त्रियाँ ही थीं
इनके अलावा वेदों की ऋचाओं ने भी
शरीर धारण किया
ऋषि रूपा , गन्धर्व रूपा , देवताओं की पत्नियाँ
नागकन्या आदि सभी
इस रात्रि की बाट जोह रही थीं
जन्म जन्मान्तरों की चाह
पूरी करने को आतुर थीं 
 जब मोहक वातावरण प्रभु ने देखा
तब कदम्ब के नीचे खड़े हो
आँख बंद कर
बंसी को होठों पर धर
क्लीं बीज फूंका
क्लीं यानि कामना बीज
वंशी में प्रभु ने ऐसी तान बजाई
जिसे सुन गोपियाँ दौड़ी दौड़ी आयीं
जिसका नाम वंशी में पुकारते थे
सिर्फ उसी गोपी को धुन सुनाई देती थी
बाकी किसी को ना
वो धुन सुनती थी
जैसे ही जिसने अपना नाम सुना
वैसे ही गोपी ने अपनी दशा बिसरायी
ज्यों योगी किसी योग में समाधिस्थ हो
ऐसे हाल हो गया
जो जिस हाल में थी
उसी में दौड़ी आई
कोई गोपी दूध दूह रही थी
जैसे ही आवाज़ सुनी
वो दूध दूहना भूल दौड़ पड़ी
कोई गोपी पति को भोजन कराती थी
एक फुल्का हाथ में
और एक तवे पर था
जैसे ही आवाज़ सुनी
वो फुल्का हाथ में लिए
वैसे ही दौड़ पड़ी
कोई गोपी बच्चे को दूध पिलाती थी
वंशी की धुन सुनते ही
बच्चे को पटक
उसी अवस्था में दौड़ पड़ी
कोई गोपी शरीर में
अंगराग , चन्दन , उबटन
लगा रही थी
वंशी की धुन सुन
उलटे सीधे वस्त्र पहन
दौड़ पड़ी
लहंगे की जगह चादर ओढ़ ली
और चुनरी हाथ में ले दौड़ पड़ी
कोई गोपी सिंगार करती थी
 वंशी की धुन सुन
आंख का अंजन माथे पर
और बिंदी गालों पर लगा दौड़ पड़ी
कोई गोपी आभूषण पहनती थी
वंशी की धुन सुन घबराहट में
हाथ का पाँव में
और गले का हाथ में पहने दौड़ी जाती थी
जो जिस अवस्था में थी
वैसे ही दौड़ रही थी
घरवालों ने कितना रोका
मगर वो ना किसी की सुनती थीं
जैसे कोई वेगवती नदी
सागर से मिलने को
आतुर दौड़ी जाती है
यों सारी गोपियाँ
बिना किसी को देखे
बिना किसी से बोले
बिना इक दूजे को आवाज़ लगाये
आज  ऐसे दौड़ी जाती हैं
आज मंगलमयी प्रेमयात्रा को
विश्राम जो पाना था
कैसे किसी विघ्ने के रोके
वो रुक सकती थीं
क्योंकि उनके मन प्राण  और आत्मा का
आज विश्वभरण ने हरण किया था
कुछ गोपियों के स्वजनों ने
घर द्वार बंद कर रोक लिया
उन्हें ना कहीं से निकलने का मार्ग मिला
तब उन्होंने आँख मूँद
बड़ी तन्मयता से
प्रभु के सौंदर्य , माधुर्य और लीलाओं
 का ध्यान किया
अपने प्रियतम की असह्य
विरह वेदना से
उनका ह्रदय दग्ध हुआ
उसमे जल जो भी
अशुभ संस्कार  थे
भस्मीभूत हुए
और उनका तुरंत ध्यान लग गया
ध्यान में ही बड़े वेग से
प्रभु ने आलिंगन किया
उस समय उस सुख और शांति से
उनके सभी पुण्य संस्कारों का क्षरण हुआ
यद्यपि उस समय उनमे
थोड़ी बहुत कामवासना भी थी
मगर जब सत्य का
परमसत्य से मिलन हो जाता है
तब वो भी तो परमसत्य बन जाता है
प्रभु ने अपनी प्रीति और भक्ति दे मुक्त किया
और उन सबको अपना परमधाम दिया
तब परीक्षित के मन में प्रश्न उठा
गोपियाँ तो केवल प्रभु को
अपना परम प्रियतम मानती थीं
उनका ना उनमे कोई
ब्रह्मभाव था
फिर कैसे उनकी मुक्ति हुई
सुन क्रोधित हो शुकदेव जी बोले
राजन मैं तुम्हें बतला चुका हूँ
शिशुपाल जो प्रभु से
शत्रुता का भाव रखता था
पर उसे भी प्रभु ने मुक्त किया
पूतना वृत्तासुर आदि सभी
राक्षसों को अपना परमधाम दिया
फिर गोपियाँ तो नित्यसिद्धा थीं
जन्म जन्म की उनकी
प्रभु से लौ लगी थी
यदि किसी भी भाव से आये
तो कैसे ना उन्हें मुक्त करते
जब प्रभु अपने से दुश्मनी
रखने वालों को भी तार देते हैं
कर्म क्रोध लोभ मोह
चाहे जैसे भी किसी ने भजा
मगर मरते समय जिसने भी
प्रभु का सुमिरन किया
उसे प्रभु ने भव बँधन से मुक्त किया
उनके यहाँ ना अपने पराये
का कोई भेद है
क्योंकि सब संसार के
वो ही तो परम पिता हैं
फिर कैसे कोई पिता
अपने बच्चों में
भेद कर सकता है
जो जैसे भी आये
उसका ही कल्याण करता है
जिस रूप से वृत्ति
प्रभु चिंतन में लग जाती है
तब वो वृत्तियाँ
भगवन्मय हो जाती हैं
क्योंकि चिंतन सुमिरन
हर पल हर रूप में
प्रभु का ही होता है
तभी जीव बँधन मुक्त होता है
तब परीक्षित का संशय दूर हुआ
शुकदेव जी आगे कथा सुनाने लगे

क्रमश: ……………


तुम लम्हा हो कि खामोशी ???

तुम लम्हा हो कि खामोशी पूछ लिया जब उसने 

दर्दे दिल भी मुस्कुराकर सिमट गया खुद मे 

ढूँढती हूँ खुद मे लम्हों का सफ़र 

बूझती हूँ खुद से खामोशी का कहर

ना लम्हा किसी हद मे सिमट पाया 

ना खामोशी किसी ओट मे छिप पायी

अब खुद को खामोशी कहूँ या लम्हा 

ज़रा कोई उनसे ही पूछकर बतला दे 

कैसे लम्हे खामोशी का ज़हर पीते हैं

कैसे खामोशी लम्हों मे पलती है


कोई जुदा करके बतला दे ………यारा!!!!

सच बोलने की सजा

स्वतंत्रता दिवस पर टीचर ने निबंध लिखने को दिया . सभी बच्चों ने निबंध लिखा और पास हो गए सिर्फ एक बच्चा फेल हो गया क्योंकि उसने लिखा था ——–

स्वतंत्रता दिवस पर हमारे प्रधानमंत्री लालकिले पर तिरंगा फहराते हैं और भाषण देते हैं जिसमे वो देश से भ्रष्टाचार , बेरोजगारी, मंहगाई आदि को भागने के बड़े-बड़े वादे करते हैं मगर अमल एक पर भी ना करते हैं ये सिर्फ कोरे आश्वासन होते हैं क्योंकि वो तो खुद एक कठपुतली प्रधानमंत्री होते हैं जिन्हें सिर्फ एक दिन बोलने का अधिकार होता है उसके बाद तो वो मौन धारण करते हैं . इस प्रकार हम स्वतंत्रता दिवस की औपचारिकता निभाते हैं और स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं.

बच्चा सोचने पर विवश हो गया कि आखिर उसने क्या गुनाह किया जो सिर्फ वो ही फेल हो गया . क्या सच बोलने की यही सजा होती है ? 

पार्श्व मे संगीत बज रहा था …
इंसाफ़ की डगर पर बच्चों दिखाओ चलकर 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के