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Archive for दिसम्बर, 2012

क्या संभव है सुदृढ़ इलाज ??????????

मेरी आत्मा
लाइलाज बीमारी से जकडी 
विवश खडी है इंसानियत के मुहाने पर
मुझे भी कुछ पल सुकून के जीने दो
लगा गुहार रही है इस नपुंसक सिस्टम से
मेरी सडी गली कोशिकाओं को काट फ़ेंको
ये बढता मवाद कहीं सारे शरी्र को ही 
ना नेस्तनाबूद कर दे 
उससे पहले 
उस कैंसरग्रस्त अंग को काट फ़ेंकना ही समझदारी होगी
क्या आत्मा मुक्त हो सकेगी बीमारी से 
इस प्रश्न के चक्रव्यूह मे घिरी 
निरीह आँखों से देख रही है 
लोकतंत्र की ओर
जनतंत्र की ओर
मानसतंत्र की ओर
क्या संभव है सुदृढ़ इलाज ??????????

ख़ामोशी की गूँज ऐसी होनी चाहिए

क्या कहूं 

सत्ता बीमार है या मानसिकता 

इंसानियत मर गयी या शर्मसार है 
मौत तो आनी  है इक दिन 
मगर मौत से पहले हुयी मौत से 
कौन कौन शर्मसार है ?


क्योंकि 
न इंसानियत बची न इन्सान 
लगता है आज तो बस बेबसी है शर्मसार………

चेहरा जो ढाँप लिया तुमने

तो क्या जुर्म छुप गया उसमें
क्या करेगा ओ नादान उस दिन
जब तेरा ज़मीर हिसाब करेगा तुझसे

अब पीढियाँ ना हों शर्मसार
यारा करो कोई ऐसा व्यवहार

अब अंगार हाथ में रख
जुबाँ पर इक कटार रख 
देख तस्वीर बदल जायेगी
बस हौसलों की दीवार बुलंद रख 


ख़ामोशी की गूँज ऐसी होनी चाहिए 

सोच के परदे फाड़ने वाली होनी चाहिए 
व्यर्थ न जाये बलिदान उसका 
अब ऐसी क्रांति होनी चाहिए 
यही होगी सच्ची श्रद्धांजलि




जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक सुधार संभव नहीं क्योंकि देखो चाहे मृत्युदंड का प्रावधान है हत्या के विरुद्ध तो क्या हत्यायें होनी बंद हो गयीं नहीं ना तो बेशक कानून सख्त होना चाहिये इस संदर्भ में मगर उसके साथ मानसिकता का बदलना बहुत जरूरी है जब तक हमाiरी सोच नही बदलेगी जब तक हम अपने बच्चों से शुरुआत नहीं करेंगे उन्हें अच्छे संस्कार नहीं देंगे औरत और आदमी मे फ़र्क नहीं होता दोनो के समान अधिकार और कर्तव्य हैं और बराबर का सम्मान जब तक ऐसी सोच को पोषित नहीं करेंगे तब तक बदलाव संभव नहीं ।

सिर्फ़ एक झलक दिखा जाओ

सुना है कान्हा
निधि वन मे रास रचाते हैं
गोपियों को नाच नचाते हैं
मै गोपी बन कर आ गयी
मुझे मिले ना श्याम मुरारी
मेरी चुनर रह गयी कोरी
श्याम ने खेली ना प्रीत की होरी
ललिता से प्रीत बढाते हैं
राधा संग पींग बढाते हैं
हर गोपी के मन को भाते हैं
पर मुझसे मूँह चुराते हैं
और मुझे ही इतना तडपाते हैं
ये कैसा रास रचाते हैं
जिसमे मुझे ना गोपी बनाते हैं
मेरी प्रीत परीक्षा लेते है
पर अपनी नही बनाते हैं
और मधुर मधुर मुस्काते हैं
अधरों पर बांसुरी लगाते हैं
मुझे ना बांसुरी बनाते हैं
सखि री
वो कैसा रास रचाते हैं
मुझे मुझसे छीने जाते हैं
पर दूरी भी बनाते हैं
पल पल मुझे तडपाते हैं
उर की पीडा को बढाते हैं
पर पीर समझ ना पाते हैं
हाय्………श्याम क्यों मुझसे ही रार मचाते हैं
बृज गोपिन की धूल भी
न मुझे बनाते हैं
लता पता ही बना देते
कुछ यूं ही अपना मुझे बना लेते
मेरी चूनर मे अपनी
प्रीत का दाग लगा देते
मै भी मतवारी हो जाती
चरण कमल मे खो जाती
उनकी दीवानी हो जाती
इक मीरा और  बना देते
मुझे श्याम रंग मे समा लेते
तो उनका क्या घट जाना था
मान ही तो बढ जाना था
और मुझे किनारा मिल जाना था
अब कश्ती भंवर मे डोल रही है
मनमोहन को खोज रही है
आ जाओ हाथ पकड लो सांवरिया
मै तो हो गयी तेरी बावरिया
मुझे अपनी जोगन बना जाओ
प्रीत मे अपनी भिगा जाओ
एक झलक दिखा जाओ
सिर्फ़ एक झलक दिखा जाओ
हर आस को पूरण कर जाओ
प्रेम परिपूरण कर जाओ
प्रीत को परवान चढा जाओ
श्याम बस इक बार झलक दिखा जाओ……………।

क्योंकि ………सब ठीक है

चलो क्रिसमस मनायें
नया साल मनायें
क्योंकि ………सब ठीक है
क्या हुआ जो किसी की दुनिया मिट गयी ………मगर मैं बच गया
क्या हुआ जो किसी का बलात्कार हुआ …………मगर मैं बच गया
क्या हुआ जो आन्दोलन बेअसर हुआ……………मेरा घर तो बच गया
क्या हुआ जो मै उनके साथ ना लडा ……………क्योंकि ये मेरी लडाई नहीं
क्या हुआ जो समाज बिगड गया ………………मगर मेरा तो कुछ ना बिगडा
क्या हुआ जो समयानुकूल ना कोई कदम उठा …………मैं तो घर पहुँच गया
क्या हुआ जो दोषारोपण हुआ …………मुझ पर तो ना इल्ज़ाम लगा
क्या हुआ जो व्यवस्था दूषित हुयी …………मगर मेरी इज़्ज़त तो बच गयी
जब तक मेरी ऐसी सोच रहेगी
मैं कहता रहूँगा …………सब ठीक है
और मनाता रहूँग़ा क्रिसमस नया साल उसी उल्लास के साथ
क्योंकि …………ऐसा कुछ ना मेरे साथ घटित हुआ
जब तक ये सोच ना बदलेगी
जब तक दूजे का दर्द ना अपना लगेगा
तब तक हर खास-ओ-आम यही कहेगा
सब ठीक है …………सब ठीक है

अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये

 इतनी लाठियाँ एक साथ ……नृशंसता की पराकाष्ठा………दोष सिर्फ़ इतना न्याय के लिये क्यों गुहार लगायी ?


बहुत हो चुका अत्याचार
बहुत हो चुका व्यभिचार
अब बन दुर्गा कर संहार
क्योंकि
बन चुकी बहुत तू सीता
कर चुकी धर्म के नाम पर खुद को होम
सहनशीला के तमगे से
अब खुद को मुक्त कर चल उस ओर
जहाँ ये नपुंसक समाज ना हो
जहाँ तू सिर्फ़ देवी ना हो
जहाँ अबला की परिभाषा ना हो
तेरी कुछ कर गुजरने की
एक अटल अभिलाषा हो
जहाँ तू सिर्फ़ नारी ना हो
समाज का सशक्त हिस्सा हो
जहाँ तू सिर्फ़ भोग्या ना हो
बराबरी का हक रखती हो
खुद को ना कठपुतली बनने देती हो
अब कर ऐसा नव निर्माण
बना एक ऐसा जनाधार
जो तेरी लहुलुहान आत्मा पर
फ़हराये अस्तित्व बोध का परचम
तू भी इंसान है ………स्वीकारा जाये
तेरा अस्तित्व ना नकारा जाये
तेरी रजामंदी शामिल हो
हर फ़ैसले पर तेरी मोहर लगी हो
कर खुद को इस काबिल
फिर देख कैसे ना रुत बदलेगी
खिज़ाँ की हर बदली तब हटेगी
और हर दिल से यही आवाज़ निकलेगी
बहुत हो चुका अत्याचार
अब तो ये पहचान मिलनी चाहिये
जिसमें हौसलों भरी उडान हो
तेरे कुछ कर गुजरने के संस्कार ही तेरी पहचान हों
तेरी योग्यता ही उस संस्कृति की जान हो
तेरी कर्मठता ही उस सभ्यता का मान हो 
ऐसी फिर एक नयी लहर मिलनी चाहिये
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये …………

और कैसे होगा लोकतंत्र का बलात्कार ?

अब देखिये इस चित्र को और बताइये ये किस बर्बरता से कम है……कल को कहीं फिर से जलियाँवाला बाग कांड भी हो जाये तो कोई हैरानगी नहीं होगी


इसे क्या कहेंगे आप ?
पुलिस की बर्बरता या सरकार का फ़रमान या अनदेखी या लोकतंत्र का बलात्कार राजशाही द्वारा …………जहाँ न्याय की माँग करने पर पैरों से रौंदा जाता है ………धिक्कार है !!!!!!!!




बर्बरता शब्द भी आज रो उठा
देखा जो हाल इंडिया गेट पर
कैसा देश कैसा लोकतंत्र
ये तो बन गया कठपुतली तंत्र
सुना है कृष्ण ने उद्धार हेतु
किया था भौमासुर का संहार
और किया था मुक्त सोलह हजार को
वो भी तो दानव था ऐसा
जो बलात कन्या अपहृत करता था
उनको कृष्ण ने  न्याय दिया
राजा का धर्म निभा दिया
आज कैसे राजा राज करते हैं
जो बलात्कारियों को ही संरक्षण देते हैं
और विरोध करने वालों पर ही
अत्याचार करते हैं
सुना है जब अधर्म की अति होती है
तभी कोई नयी क्रांति होती है
इस बार जो बीज बोये हैं
फ़सल उगने तक इन्हें सींचना होगा
हौसलों को ना पस्त होने देना होगा
मेरे देश के बच्चों …कल तुम्हारा है
बस ये याद रखना होगा
जो कदम आगे बढे
उन्हें ना पीछे हटने देना होगा
फिर देखें कैसे ना तस्वीर बदलेगी
कैसे ना पर्वत से गंगा निकलेगी
बेशक आज अन्याय की छाती चौडी है
मगर न्याय की डगर से भी ना दूरी है
बस इस बार ना कदम पीछे करना
और इस देश के नपुंसक तंत्र को उखाड देना
बस न्याय मिल जायेगा
हर दामिनी का चेहरा गर्व से दमक जायेगा 


ओ देश के कर्णधारों ……अब तो जागो

कुम्भकर्णी नींद में सोने वालों अब तो जागो
ओ देश के कर्णधारों ……अब तो जागो
क्या देश की आधी आबादी से तुम्हें सरोकार नहीं
क्या तुम्हारे घर में भी उनकी जगह नहीं
क्या तुम्हारा ज़मीर इतना सो गया है
जो तुम्हें दिखता ये जुल्म नहीं
क्या जरूरी है घटना का घटित होना
तुम्हारे घर में ही
क्या तभी जागेगी तुम्हारी अन्तरात्मा भी
क्या तभी संसद के गलियारों में
ये गूँज उठेगी
क्या उससे पहले ना किसी
बहन, बेटी या माँ की ना
कोई पुकार सुनेगी
अरे छोडो अब तो सारे बहानों को
अरे छोडो अब तो कानून बनाने के मुद्दों को
अरे छोडो अब तो मानवाधिकार आदि के ढकोसलों को
क्या जिस की इज़्ज़त तार तार हुई
जो मौत से दो चार हुयी
क्या वो मानवाधिकार के दायरे मे नही आती है
तो छोडो हर उस बहाने को
आज दिखा दो सारे देश को
हर अपराधी को
और आधी आबादी को
तुम में अभी कुछ संवेदना बाकी है
और करो उसे संगसार सरेआम
करो उन पर पत्थरों से वार सरेआम
हर आने जाने वाला एक पत्थर उठा सके
और अपनी बहन बेटी के नाम पर
उन दरिंदों को लहुलुहान कर सके
दो इस बार जनता को ये अधिकार
बस एक बार ये कदम तुम उठा लो
बस एक बार तुम अपने खोल से बाहर तो आ सको
फिर देखो दुनिया नतमस्तक हो जायेगी
तुम्हारे सिर्फ़ एक कदम से
आधी आबादी को ससम्मान जीने की
मोहलत मिल जायेगी …………
गर है सच्ची सहानुभूति तभी ज़ुबान खोलना
वरना झूठे दिखावे के लिये ना मूँह खोलना
क्योंकि
अब जनता सब जानती है ………बस इतना याद रखना
गर इस बार तुम चूक गये
बस इतना याद रखना
कहीं ऐसा ना हो अगला निशाना घर तुम्हारा ही हो ……………

क्योंकि तख्ता पलट यूँ ही नहीं हुआ करते ………..

अब सिर्फ

लिखने के लिए
नहीं लिखना चाहती
थक चुकी हूँ
वो ही शब्दों के उलटफेर से
भावनाओं के टकराव से
मनोभावों का क्या है
रोज बदलते हैं
और एक नयी
परिभाषा गठित करते हैं
मगर लगता है
सब निरर्थक
रसहीन
उद्देश्यहीन सा
कोई कीड़ा रेंग रहा है
अंतस में चिकोटी भर रहा है
जो चाह रहा है
अपनी परिधि से बाहर आना
निकलना चाहता है
नाली के व्यास से बाहर
बनाना चाहता है
एक अलग मकां अपना
जिसमे
सिर्फ शब्दों के अलंकार ना हों
जिसमे सिर्फ
एकरसता ना हो
जिसमे हो एक नया उद्घोष
जिसमे हो एक नया सूर्योदय
अपने प्रभामंडल के साथ
अपनी आभा बिखेरता
और अपने लिए खुद
अपनी धरती चुनता हुआ
जिस पर रख सकूँ मैं अपने पैर
नहीं हो जिसकी जमीन पर कोई फिसलन
हो तो बस एक
आकाश से भी विस्तृत
मेरा अपना आकाश
जिसके हर सफे पर लिखी इबारत मील का पत्थर बन जाये
और मेरी धरा का रंग गुलाबी हो जाये

कोई तो कारण होगा
खामोश मर्तबान में मची इस उथल पुथल का
जरूरी तो नहीं अचार खट्टा ही बने
शायद
अब वक्त आ गया है देग बदलने का …………….
यूँ तो धमनियों में लहू बहता ही रहेगा
और जीवन भी चलता रहेगा
मगर
अन्दर बैठी सत्ता ने बगावत कर दी है
क्योंकि तख्ता पलट यूँ ही नहीं हुआ करते ………..

क्योंकि…….. हूँ बलात्कारियों के साथ तब तक

हम थोथे चने हैं
सिर्फ शोर मचाना जानते हैं
एक घटना का घटित होना
और हमारी कलमों का उठना
दो शब्द कहकर इतिश्री कर लेना
भला इससे ज्यादा कुछ करते हैं कभी
संवेदनहीन  हैं हम
मौके का फायदा उठाते हम
सिर्फ बहती गंगा में हाथ धोना जानते हैं
नहीं निकलते हम अपने घरों से
नहीं करते कोई आह्वान
नहीं देते साथ आंदोलनों में
क्योंकि नहीं हुआ घटित कुछ ऐसा हमारे साथ
तो कैसी संवेदनाएं
और कैसा ढोंग
छोड़ना होगा अब हमें …….आइनों पर पर्दा डाल कर देखना
शुरू करना होगा खुद से ही
एक नया आन्दोलन
हकीकत से नज़र मिलाने का
खुद को उस धरातल पर रखने का
और खुद से ही लड़ने का
शायद तब हम उस अंतहीन पीड़ा
के करीब से गुजरें
और समझ सकें
कि  दो शब्द कह देने भर से
कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं होती
क्योंकि ………आज जरूरी है
बाहरी आन्दोलनों से पहले
आतंरिक दुविधाओं के पटाक्षेप का
केवल एक हाथ तक नहीं
अपने दोनों हाथों को आगे बढाने का
जिस दिन हम बदल देंगे अपने मापदंड
उस दिन स्वयं हो जायेंगे आन्दोलन
बदल जायेगी तस्वीर
मगर तब तक
कायरों , नपुंसकों की तरह
सिर्फ कह देने भर से
नहीं हो जाती इतिश्री हमारे कर्तव्यों की
और मैं ……….अभी कायर हूँ
क्योंकि…….. हूँ बलात्कारियों के साथ तब तक
जब तक  नहीं मिला पाती खुद से नज़र
नहीं कर पाती खुद से बगावत
नहीं चल पाती एक आन्दोलन का सक्रिय पाँव बनकर
इसलिए
शामिल हूँ अभी उसी बिरादरी में
अपनी जद्दोजहद के साथ …………….

 इस अभियान मे शामिल होने के लिये सबको प्रेरित कीजिए
http://www.change.org/petitions/union-home-ministry-delhi-government-set-up-fast-track-courts-to-hear-rape-gangrape-cases#

कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं………

" नदी हूँ फिर भी प्यासी "

 
ए …..ले चलो 
मुझे मधुशाला  
देखो

कितनी प्यासी है मेरी रूह
युग युगांतर से
पपडाए चेहरे की दरारें
अपनी कहानी आप कर रही हैं
कहीं तुमने अपनी आँखों पर
भौतिकता का चश्मा
तो नहीं लगा लिया
जो आज तक तुम्हें
मेरी रूह की सिसकती
लाश का करुण  क्रंदन
न सुनाई दिया 
और मैं
युगों युगों से
जन्म जन्म से
अपनी रेत के
तपते रेगिस्तान में 
मीन सी तड़प रही हूँ
प्यास पानी की होती
तो शायद
रेगिस्तान में भी
कोई चश्मा ढूंढ ही लेती
मगर तुम जानते हो
मेरी प्यास
उसका रूप उसका रंग
निराकार होते हुए भी
साकार हो जाती है
और सिर्फ यही इल्तिजा करती है
ए ………एक बार सिर्फ एक बार
प्रीत की मुरली बजाते
मेरी हसरतों को परवान चढाते 
इस राधा की प्यास बुझा जाओ
हाँ ……….प्रियतम
एक बार तो दरस दिखा जाओ
बस ………….और कुछ नहीं
कुछ नहीं चाहिए उसके बाद 
तुम जानते हो अपनी इस नदी की प्यास को
फिर चाहे कायनात का आखिरी लम्हा ही क्यों न हो
बस तुम सामने हो ……….और सांस थम जाए 
इससे ज्यादा जीने की चाह नहीं ………..
ए ………..एक बार जवाब दो ना
क्या होगी मेरी ये हसरत पूरी ……….. रेगिस्तान की इस रेतीली नदी की