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Archive for जून, 2013

सखी री कोई उनको संदेसा पहुँचा दे

सखी री कोई उनको संदेसा पहुँचा दे

तेरी प्यारी राह तकत है
बैठी बिरहा की मारी
सखी री कोई उनको संदेसा पहुँचा दे

सुबह शाम का होश नहीं है
तनमन की सुध बिसरत है
कोई प्रियतम से मिलवा दे
सखी री कोई उनको संदेसा पहुँचा दे

मेरे सलोने नटवर नागर
नैनन की प्यास बुझा दे
बस इक बेर दरस दिखा दे
सखी री कोई उनको संदेसा पहुँचा दे

ओ मेरे !………..7

बारातें तो बहुत देखी होंगी …………सूरतें भी बहुत गुजरी होंगी निगाहों से ……….मगर क्या देख पाए वो पुरनम नमी चेहरे की खिलखिलाहट में , जुल्फों की कसमसाहट में , आँखों की शरारत में , लबों की हरारत में ………….नहीं देख पाए होंगे ………..जानती हूँ ………….क्योंकि आँखें तो कब से मेरी आँखों में बसी हैं , दिल एक मुद्दत हुयी मेरे दिल में धड़कता है ………..तुम्हारे पास बचा क्या है तुम्हारा बताओ तो ज़रा …………सिवाय मेरे ! फिर भी  क्यों कोशिश करते हो जीने की ………मेरे बगैर , समझ नहीं पायी आज तक तुम्हारी मुफलिसी का दंश ………….और वो जो मुस्कराहट का लिबास ओढ़े तुम्हारी ज़र्द निगाहें जब भेदती हैं आकाश हो …………ना जाने कैसे हवाएं डाल देती हैं पर्दा रुखसारों पर और मैं खोजती हूँ फिर तुम्हारे ना होने में होने को …………उठाती हूँ मिटटी तुम्हारे दफनायें वजूद से ………..उसी वजूद से जो है मगर जिस पर तुमने रात की कालिख मल दी है ………..और करती हूँ उसका अन्वेषण …….मेरे खोजी कुत्ते दौड़ते हैं तुम्हारी रूह के कब्रिस्तान मे बेधड़क ………..जानने को तुम्हारी ज़मींदोज़ सभ्यताओं को ……….शायद कहीं मिल जाए कोई शहादत की निशानी और मैं बन जाऊं मुकम्मल ग़ज़ल तुम्हारी आँखों में ठहरी ख़ामोशी की …………जानां !!!


इश्क की बारातों के दूल्हे तो सदा अंगारों पर चला करते हैं ……….घोड़ी चढ़ना उनका नसीब नहीं हुआ करता …………और दुल्हनें सदा सुहागिन ही रहती हैं उम्र भर बिना सात फेरों की रस्मों को निभाए …………..और देख एक मुद्दत हुयी …………..मेरे इश्क की दुल्हन ने घूंघट नहीं खोला है सिर्फ और सिर्फ तेरे इंतज़ार में …………कि  तुम एक दिन खुद उठाओगे घूंघट ……….क्या करोगे मुझे मुकम्मल मेरी मज़ार पर आरती का दीप जलाकर ………मेरी तरह  क्योंकि एक मुद्दत हुयी मेरी आरती का दीप बुझा नहीं है अब तक ………..तुमसे एक सवाल है ये ………..क्या दे सकोगे कभी ” मुझसा जवाब ” …………ओ मेरे !

ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

तुम कहते रहे मै गुनती रही
ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

कभी सलीबों पर लटकती रही
कभी ताजमहल बनाती रही
ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

कभी रूह पर ज़ख्म देती रही
कभी मोहब्बत के फ़ूल खिलाती रही
ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

कभी तुझमे मुझे ढूँढती रही
कभी इक दूजे मे गुम होती रही
ज़िन्दगी यूँ ही कटती रही


कभी सब्जबाग दिखाती रही
कभी हकीकत डराती रही
ज़िन्दगी यूँ ही कटती रही

कभी राह रौशन करती रही
कभी शम्मा बन जलती रही
ज़िन्दगी यूँ ही कटती रही

ओ मेरे !…………6

साहेबा ! इश्क की डली मूंह में रखी है मैंने ………… और कुनैन से कुल्ला किया है ………..खालिस मोहब्बत यूं ही नहीं हुआ करती ………..एक डोरी सूरज की तपिश की लेनी पड़ती है और एक डोरी रूह की सुलगती लकड़ी की …फिर गूंथती हूँ चोटी अपने बालों के साथ लपेटकर ………..लपटें रोम रोम से फूटा करती हैं और देख आज तक जली ही नहीं मेरी ख्वाहिशें , तुझे चाहते रहने की कोशिशें , तुझ पर जाँ निसार करने की चाहतें ……….एक एक मनका प्रीत का पिरोया है ना मैंने जो सूत काता था कच्चे तारों का और कंठी बना गले में बाँध लिया है ……….. सुना है इस कंठी को देख फ़रिश्ते भी सजदे किया करते है , सजायाफ्ता  रूहें भी सुकून पाया करती हैं ………..जानते हो क्यों ? क्योंकि इसमें तेरा नाम लिखा है …………..जानां !!!


सिन्दूर , पाजेब , बिंदिया , मंगलसूत्र कुछ नहीं चाहिए मुझे ……….ये ढकोसलों भरे रिवाज़ मेरी रूह की थाती नहीं ……….तुम जानते हो …………बस प्रेम की कंठी जो मैंने बाँधी है ………..क्या किसी जन्म में , किसी पनघट के नीचे , किसी पीपल की छाँव में , किसी चाहत की मुंडेर पर ………..आओगे तुम मुझमे से खुद को ढूँढने ………मेरी आवाज़ को , मेरी इबादत को मुकम्मल करने …………...ये एक सवाल है तुमसे ……….क्या दे सकोगे कभी ” मुझसा जवाब ” …………ओ मेरे !

कैसे कहूं सखी मन मीरा होता तो श्याम को रिझा लेता




कैसे कहूं सखी 

मन मीरा होता तो 
श्याम को रिझा लेता 
उन्हे नयनो मे समा लेता 
ह्रदयराग सुना देता 

पर ये तो निर्द्वन्द भटकता है
ना कोई अंकुश समझता है
या तो दे दो दीदार सांवरे
नहीं तो दर बदर भटकता है
पर मीरा भाव ना समझता है
ना मीरा सा बनता है
फिर कैसे कहूं सखी
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता

अब तो एक ही रटना लगाता है
किसी और भुलावे में ना आता है
अपने कर्मों की पत्री ना बांचता है
अपने कर्मों का ना हिसाब लगाता है
जन्म जन्म की भरी है गागर
पापों का बनी है सागर
उस पर ना ध्यान देता है
बस श्याम मिलन को तरसता है
दीदार की हसरत रखता है
ये कैसे भरम में जी रहा है
फिर कैसे कहूं सखी
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता

जाने कहाँ से सुन लिया है
अवगुणी को भी वो तार देते हैं
पापी के पाप भी हर लेते हैं
और अपने समान कर लेते हैं
वहाँ ना कोई भेदभाव होता है
बस जिसने सर्वस्व समर्पण किया होता है
वो ही दीदार का हकदार होता है
बता तो सखी ,
अब कैसे ना  कहूं
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता

एक चेहरा : कितने रूप और क्यों ?

विभीषिका बना रही हूँ 
अपने चेहरे तुम्हें दिखा रही हूँ 
अब भी संभल जाना 
समय रहते चेत जाना

वो कुसुम कली सी खिलखिला रही थी 

अपनी अठखेलियों से लुभा रही थी 
नन्ही शिशु सी मुस्कुरा रही है 
हर जीव में उमंग उत्साह जगा रही थी 
ना जाने कैसे काल की  कुदृष्टि पड़ी 
जहाँ जीवन लहलहा रहा था 
वहाँ दोहन का राक्षस बाँछें खिलाये 
दबे पाँव चला आ रहा था 
किसी को ना पता चला 
मानव के स्वार्थ रुपी राक्षस ने 
उस का सारा सौंदर्य लील लिया 
ना जाने कौन किस पर अट्टहास कर रहा था 
मगर उसका सौंदर्य तो पैशाचिक भेंट चढ़ चुका था 
बस दोषारोपण का सिलसिला चल निकला 
मगर खुद पर ना किसी ने दृष्टिपात किया 
हाय ! ये मैंने क्या किया 
इतने सुन्दर सौंदर्य को विनष्ट किया 
अब हाथ मल पछताने से कुछ ना होगा 
जिसने जो खोया उसका न कही भरण होगा 
अब ना वो प्राकृतिक सौंदर्य होगा 
अब ना वैसा रूप लावण्य होगा 
सोच सोच प्रकृति सहमी जाती है 
और मानव कृत विनाशलीला पर 
हैरान हुयी जाती है ………..



जहाँ ना शिव का डमरू बजा ना मृदंग 
फिर भी 
हे ईश्वर ! ये कैसा तांडव हुआ ………..
क्या अब भी कोई समझ पायेगा 
क्या अब भी ये मानव जान पायेगा 
या फिर हमेशा की तरह पल्ला झाड 
फिर से दोहन में जुट जाएगा ………..
या फिर प्रकृति को हर बार 
अपनी आबरू बचाने के लिए 
रौद्र रूप धारण करना होगा 
ये तो समय की परतों में छुपा है 
मगर 
आज का सच तो शर्मनाक हुआ है 
जहाँ प्रकृति कुपित हुयी है 
अपनी लज्जा ढांपने को मजबूर हुयी है 



वो तो वक्त वक्त पर 
धीमी हुंकारें भरती रही 
कोशिश अपनी करती रही 
शायद अब समझ जाएगा 
मेरी करवट से ही जाग जाएगा 
मगर न इस पर असर हुआ 
इसके दुष्कृत्य ना बंद हुए 
थक हार कर मुझे ही कदम बढ़ाना पड़ा 
ना केवल अपने सौंदर्य को बचाने के लिए 
बल्कि इसी सम्पूर्ण मानव जात को बचाने के लिए 
कुछ अपनों की बलि लेनी पड़ी 
ताकि आने वाली पीढ़ी की सांसें ना फूले 
एक स्वस्थ वायुमंडल में वो जन्म ले 
क्योंकि ………..सुना है 
कैंसरग्रस्त हिस्से को काट फेंकने पर ही जीवनदान मिला करता है 
और 
तुम्हारी दोहन की आदत 
वो ही कैंसरग्रस्त हिस्सा है 
जिसके लिए ये कदम उठाना पड़ा 
अपना रौद्र रूप दिखाना पड़ा 
अब भी संभल जाना 
मत मुझे इलज़ाम देना 
वरना
कल फिर किसी भयानक त्रासदी के लिए तैयार रहना 
तो क्या तैयार हो तुम ………….ओ उम्दा दिमाग वाले मानव !

चेतावनी :(मत कर दोहन सब लील जाऊंगी ,अपनी पर आई तो सब बहा ले जाऊंगी )

पल पल सुलग रही है इक चिता सी मुझमें

पल पल सुलग रही है इक चिता सी मुझमें ………मगर किसकी ………खोज में हूँ 
पल पल बदल रहा है इक दृश्य सा मुझमें …………मगर कैसा …………खोज में हूँ 
पल पल बरस रहा है इक सावन सा मुझमें ………मगर कौन सा ………खोज में हूँ 

बुद्धिजीवी नहीं जो गणित के सूत्र लगाऊँ 
अन्वेषक नहीं जो अन्वेषण करूँ 
प्रेमी नहीं जो ह्रदय तरंगों पर भावों को प्रेषित करूँ 

और खोज लूं दिग्भ्रमित दिशाओं के पदचिन्ह 
इसलिए 
सुलग रही है इक चिता मुझमे जिसके 
हर दृश्य में बरसते सावन की झड़ी 
कहती है कुछ मुझसे ………..मगर क्या ……….खोज में हूँ 

और खोज के लिये नहीं मिल रहा द्वार 
जो प्रवेश कर जाऊँ अंत: पुर में और थाह पा जाऊँ 
सुलगती चिता की , बदलते दृश्य की , बरसते सावन की 

अब इसे क्या समझूँ ?

मेरी डायरी का 

हर वो पन्ना 
अब तक लाल है 
जिस पर तुम्हारा नाम लिखा है 
जिस पर तुम्हारे नाम संदेस लिखा है 
जिस पर तुमसे कुछ लम्हा बतियायी हूँ 

(जानते हो न डायरी ये कौन सी है …….दिल की डायरियों पर तारीखें अंकित नहीं हुआ करतीं )

जबकि सुना है 
वक्त के साथ कितना भी सहेजो 
पन्ने पीले पड़ जाते हैं 
अब इसे क्या समझूँ ?
तुम्हारी प्रीत या मेरी शिद्दत …….जो आज भी जिंदा है 

(एक मुद्दत हुयी ज़िन्दगी से तो खफा हुए …….)

" ज़िन्दगी के पन्ने " …………मेरी नज़र से



इस बार के पुस्तक मेले में इतने स्नेह और सम्मान से पवन अरोडा जी ने अपनी पुस्तक ना केवल भेंट की बल्कि उसके विमोचन का भी हमें हिस्सा बनाया और मैं अपनी मसरूफ़ियतों के चलते पढ नहीं पायी और जब पढ ली तो उसके बाद उस पर लिखे बिना कैसे रह सकती थी सो आज सब काम छोड कर सबसे पहला ये ही काम किया ।

ज्योतिपर्व प्रकाशन से प्रकाशित पवन अरोड़ा की ” ज़िन्दगी के पन्ने ” वास्तव में ज़िन्दगी की एक सीधी  सरल दास्ताँ है जिससे हम सब कहीं न कहीं गुजरते हैं .जहाँ कवि मन ज़िन्दगी को सूक्ष्म दृष्टि से विवेचित करता है और यही कवि  की दृष्टि होती है जो भेदों  को अभेद्ती है जो साधारण में से असाधारण को खोजती है और व्याख्यातित करती है फिर ज़िन्दगी तो है ही ऐसी शय जिसे जितना खोजो जितना चाहो जितना विश्लेषण करो अबूझी  ही लगती है .


“आस्था ” कैसे जीवन के संग बढ़ी चलती है की हम सही गलत सोचते ही नहीं बस लकीर के फ़क़ीर बने दौड़ते हैं आँख पर अविवेक की पट्टी बांधे  . आस्था की डोर में बढे एक जिंदगी जी कर कब निकल जाते हैं और जान  ही नहीं पाते  आखिर जीवन है क्या और उसका मकसद क्या है . 

“नरक धाम ” जीवन की वो सच्चाई है जो इंगित करती है कई  स्वर्ग और नरक की अवधारणा को जो हर इंसान चाहता ही की उसे स्वर्ग मिले जबकि ये एक सत्य है जिसे भी स्वर्ग मिला उसे फिर जन्म लेना पड़ा और दुनिया में आकर वो दुःख दर्द झेलना पड़ा जो किसी नरक से कम नहीं फिर क्या फायदा नरक धरती पर हो या आसमान में रहना तो नरक में ही है .
” धर्मयुद्ध ” के माध्यम से इंसान की वृत्ति पर कटाक्ष किया है . 
धर्म के नाम पर आज खोली दूकान
जहाँ उगलता साँपों जैसी 
खुद को कहता 
भगवान या कैसा आज का इंसान 
एक ऐसी सच्चाई जिसमें फंसकर इंसान क्या कुछ नहीं गँवा देता और हाथ कुछ नहीं आता .

” कौन मैं ” खुद को खोजता हर अस्तित्व जिसमें कोई साथ नहीं न दोस्त न माँ , , बाप भाई बहन कोई नहीं एक ऐसी सोच जिसने पा लिया उसे कुछ खोजना बाकी न रहा .

“सवाल उठते हैं मन मैं ” हर मन की पीड़ा का अवलोकन है और कुछ प्रश्न हमेशा अनुत्तरित ही रहते हैं या वो कर्मों और भाग्य का लेख बन मूक रह जाते हैं . 
इंसानियत का हो रहा कत्लेआम 
ऐसे न लगवाओ इसके दाम 
कभी तूने भी 
सोचा क्या होगा उस माँ का हाल 
जिसने जिगर का टुकड़ा खो दिया अपना लाल 

“रिश्ते” में रिश्तों के सिमटते आकाश को बखूबी उकेरा है . आज के युग में जब एक दो बच्चे ही हो रहे हैं तो कैसे जान पायेगे वो कोई दूसरा रिश्ता भी होता है और फिर अकेले ही गिने चुने रिश्तों को सहेजना है और न सहेज पाने की स्थिति में गलत कदम उठाना कितना दुरूह होता है उसका आकलन किया है .

” आँखों की भाषा ” में चंद  शब्दों में पूरा प्रेम का फलसफा गढ़ दिया .

” आओ कहीं आग लगायें ” एक कटाक्ष है आज की राजनीती पर कैसे सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के लिए जनता का दोहन किया जाता है .

 ” आज फिर गूँज उठी आवाज़ ” मौत एक शाश्वत सत्य है कि ओर  इंगित करती रचना बताती है चाहे कुछ कर लो मगर मौत ने तो आना ही आना है .

” एक इंतज़ार ” में एक पिता की भावनायें कैसे बेटी के लिए उमगती हैं उसका खूबसूरत चित्रण है .

” माटी का यह ” के माध्यम से ज़िन्दगी की हकीकत बताई है कि ये शरीर मिटटी है और एक दिन मिटटी में ही मिल जाना है बस इसे समझना जरूरी है .

” नेता रुपी नाग ” के माध्यम से नेताओं की सोच को परिलक्षित किया है कि वो तुम्हें डँस ले उससे पहले जाग जाओ और सही कदम उठाओ .

ये तो सिर्फ कुछ रचनायें ही मैंने समेटी हैं बाकि पूरे काव्य संग्रह में हर कविता में ज़िन्दगी के हर पहलू को समेटने की कोशिश की है . सीधी सरल भाषा में हर पहलू को छूना और उसे व्यक्त करना ताकि मन की बात सब तक पहुँच सके यही पवन अरोड़ा की खासियत है. हर लम्हा लम्हा ज़िन्दगी को खोजने को प्रयासरत पवन अरोड़ा ने काफी रचनायें ज़िन्दगी पर ही लिखी हैं जैसे खोज रहे हों ज़िन्दगी के गर्भ में छुपी हकीकतें और वो मिलकर भी अधूरी हसरत सी तडपा रही हों .


पवन अरोड़ा से आप इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं 
M: 09999677033

ज्योतिपर्व प्रकाशन  
99,ज्ञान खंड  — 3 , इन्दिरपुरम
 गाज़ियाबाद ——– 201012

मोबाइल  : 9811721147

बस महज इतना ही योगदान है क्या पिता का?

पिता होना या पिता के लिये कुछ लिखना या कहना
इतिहास के पन्नों पर कभी अंकित ही नहीं हुआ
किसी ने पिता को उतना महत्त्व ही नहीं दिया
तो कैसे मिलती सामग्री इतिहास के पन्नों में
या कैसे होता अवलोकन किन्हीं धार्मिक ग्रंथों में
एक दो जगह अवपाद को छोडकर 


शिशु का उदभव यूँ ही नहीं होता
दो बूँद वीर्य की पिता के 
दे जाती हैं एक सरंचना को जन्म
बस महज इतना ही योगदान है क्या पिता का?
क्या हमने सिर्फ़ इतना ही जाना है  पिता का होना
तो फिर हमने जाना ही नहीं 
हमने किया ही नहीं दर्शन पितृ महत्त्व का

पिता होने का तात्पर्य 
ना केवल जिम्मेदार होना होता है
बल्कि अपने अंश को 
एक बेहतर जीवन देना भी होता है
भरना होता है उसमें अदम्य साहस
चक्रवातों से लडने की हिम्मत
भरनी होती है उत्कंठा 
आसमानों पर इबारत लिखने की
निडर बनने की
योजनाबद्ध चलने की 
दूरदृष्टि देने की
अपने अनुभवों की पोटली
उसके समक्ष खोलने की
यूँ ही नहीं एक व्यक्तित्व का 
निर्माण है होता
यूँ ही नहीं घर समाज और देश
उन्नति की ओर अग्रसर होता
केवल भावनाओं के बल पर
या लाड दुलार के बल पर
सफ़ल जीवन की नींव नहीं रखी जा सकती
और जीने की इस जीजिविषा को पैदा 
सिर्फ़ एक पिता ही कर सकता है
बेशक भावुक वो भी होता है
बेशक अपने अंश के दुख दर्द से 
दुखी वो भी होता है
पर खुद की भावनाओं को काबू में रखकर
वो सबके मनोबलों को बढाता है
और धैर्य का परिचय देना सिखाता है
यही तो जीवन के पग पग पर
उसके अंश का मार्गदर्शन करता है
फिर कैसे कह सकते हैं 
पिता का योगदान माँ से कम होता है
क्योंकि
सिर्फ़ जन्म देने भर से ही 
या नौ महीने कोख में रख 
दुख सहने भर से ही
या उसके लालन पालन में 
रातों को जागकर 
या गीले सूखे मे सोना भर ही
माँ को उच्च गरिमा प्रदान करता है
और पिता को कमतर आँकता है
ये महज दो हिस्सों में बाँटना भर हुआ 
जबकि योगदान तो बच्चे के जीवन मे
पिता का भी कहीं भी माँ से ना कम हुआ
अब इस दृष्टिकोण को भी समझना होगा

और पिता को भी उसका उचित स्थान देना होगा