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Archive for मार्च, 2013

क्या सुनी तुमने भी ?

लिखा उसने अपने पंखों पर अनहद नाद
और उड चली फ़डफ़डाते पंखों को
गिरने से पहले
कटने से पहले 
मिटने से पहले
कर दिया उसने अपना जीवन सम्पूर्ण 
देकर इक संदेश 
“प्रेम बिना जीना नाहीं “
और कटते रहे उसके पंख
बिखरता रहा संगीत 
हवाओं में , फ़िज़ाओं में
धरती में , आकाश में
बस गूँज रही है तभी से ये धुन अनहद नाद सी दशों दिशाओं में………क्या सुनी तुमने भी ?

होती है "लाइफ़ आफ़्टर डैथ" भी

सुना था
लाइफ़ आफ़्टर डैथ के बारे में
मगर आज रु-ब-रु हो गया ………तुम्हारे जाने के बाद
ज़िन्दगी जैसे मज़ाक
और मौत जैसे उसकी खिलखिलाती आवाज़
गूँज रही है अब भी कानों में
भेद रही है परदों को
अट्टहास की प्रतिध्वनि
और मैं सोच में हूँ
क्या बदला ज़िन्दगी में मेरी
और तुम्हारी ………जब तुम नही हो कहीं नहीं
फिर भी आस पास हो मेरे
मेरे ख्यालों में ख्याल बनकर
तब आया समझ इस वाक्य का अर्थ
होती है “लाइफ़ आफ़्टर डैथ” भी  ……अगर कोई समझे तो!!!

क्योंकि हाथ मे चाबु्क लेकर तो कोई भी मदारी बन सकता है …………



मोहन !
तुमने असमंजस में मुझको डाला
और अपने ही वजूद पर प्रश्नचिन्ह लगवा डाला

एक तरफ़ तुम खुद को
निर्विकार , निर्लेप , निर्द्वंद बताते हो
जिसका कोई मन नहीं होता
जो भक्तों या प्रेमियों की चाह पर ही
उसी रूप में आकार लेता है
और जैसा वो बनाते हैं
उसी में ढल जाता है
दूसरी तरफ़ इसी का उलट
करते दिखते हो
जब एक से बहुत होने का तुम्हारा मन होता है
तब सृष्टि की रचना करते हो
तो बताना ज़रा छलिया
मन तो तुम्हारे भी हुआ ना
क्यों फिर तुमने अपनी इच्छा को
भक्त या प्रेमी की इच्छा से जोड दिया
क्या ये मानने से तुम छोटे हो जाते ?

मोहन ! मानना होगा तुम्हें इस बात को
क्योंकि
अकेलापन और उसकी उदासी
कैसे वजूद मे घुन की तरह लग जाती है
ये तो शायद तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता होगा
क्योंकि
तुम भी तो सारे ब्रह्मांड में तन्हा ही हो
कोई नही है तुमसे बतियाने को
कोई नही है तुम्हारा हाल जानने वाला
कोई नहीं है तुमसे अपनी कहने
और तुम्हारी सुनने वाला
और जब अपने अकेलेपन से
तुम उकता जाते हो
तब बहुत होने का तुम्हारा मन यूँ ही नहीं होता मोहन
इसका भी एक कारण है
तुम्हें भी एक प्यास है
एक चाह है
एक ख्वाहिश है
एक जिज्ञासा है
एक तडप है
एक दर्द है
एक बेचैनी है
कि कोई तो हो जो सिर्फ़ तुम्हें चाहे
कोई तो हो जो सिर्फ़ तुम्हारे लिये जीये और मिट जाये
कोई तो हो जो सिर्फ़ तुम्हारा हो
और तुम इसी चाह की पूर्णता के लिये
रच बैठते हो एक संसार अपनी चाहत का
मगर क्या कभी सोचा है तुमने
हम तुम्हारे बनाये प्राणी
तुम्हारी बनायी सृष्टि में
तुम्हारे ही हाथों की कठपुतली होते हैं
तुम जैसे चाहे डोर घुमा देते हो
जैसे चाहे जिसे जिससे जुदा कर देते हो
जैसे चाहे जिसका दिल तोड देते हो
और हम विवश प्राणी तुम पर आक्षेप
भी नहीं लगा सकते क्योंकि
तुमने तो सिक्के के दोनो पहलू
अपने ही हाथ में रखे हैं
और कर्मों का लेखा कह तुम खुद से पल्ला झाड लेते हो
और हम तुम्हारी चाहतों पर कुर्बान होते
वो बलि के बकरे हैं जिन्हें पता है ज़िबह होना है यूँ ही रिसते रिसते
अच्छा ज़रा सोचना
क्या तुम जी सकते थे ऐसा जीवन?
देखो, हमें पता है……… फिर भी जीते हैं
हर ख्वाहिश, हर चाहत , हर मजबूरी, हर वेदना से आँख मिलाते हुये

सुना है बहुत कोमल हो तुम 🙂
क्या सच में ?
मुझे तो नहीं लगे
तभी तो अपनी बनायी दुनिया में
कैसे सबका जीना मुहाल करते हो
और इतना सब झेलने के बावजूद
कोई बेचारा प्रेम का मारा तुम तक पहुँच भी जाता है
जो तुम्हारी सारी शर्तों का पालन करता हुआ
 सिर्फ़ तुम्हें चाहता है
उसे भी कब परीक्षा के नाम पर सूली पर चढा देते हो
पता ही नहीं चलता
और वो बेचारा …………जानते हो
उस पल कहीं का नहीं रहता
ना दुनिया का ना तुम्हारा
और वो पल उसे ऐसा लगता है
जैसे किसी ने उसे ठग लिया हो
जैसे बीच मझधार में माझी छोड गया हो
और चप्पू चलाना भी वो ना जानता हो
जैसे किसी धनी की सारी पूँजी
एक ही पल में स्वाहा हो गयी हो
कभी सोचा है ………क्या गुजरती होगी उन पर उस पल?

वैसे एक बात और कहनी है तुमसे
तुम कहते हो या तुम्हारी गीता या अन्य ग्रंथ कहते हैं
ये सारी दुनिया भ्रम है
सच नहीं है ………जो भी तुम आँखों से देख रहे हो
ये एक निद्रा है जिसमें तुम सो रहे हो
जिस दिन जागोगे अपने अस्तित्व को पहचान लोगे
उसी दिन खुद को पा लोगे
इसलिये यहाँ किसी से मोह मत करो
बस कर्तव्य समझ अपना कर्म करो
जैसे किसी नाटक में कोई कलाकार करता है
और नाटक के खत्म होने पर फिर अपने रूप में होता है
मान ली तुम्हारी बात
मगर ये तो सोचना ज़रा
नाटक मे काम करते पात्र को पता होता है
वो नाटक कर रहा है
वो उसका मात्र पात्र है
हकीकत में तो वो दूसरा इंसान है
मगर हम?
क्या हमें पता है ये सच्चाई?
क्या कराया तुमने कभी ये आभास?
अरे हम तो जब से पैदा हुये
जो देखा उसे ही सत्य माना
फिर कैसे इस जीवन को नाटक मान लें ?
कैसे आँखों का भ्रम मान लें?
कैसे झूठ मानें जब तक ना आभास हो हकीकत का?
क्या कभी सोचा तुमने?
नहीं ना ………तुम क्यों सोचते
तुम्हें तो अपनी चाहतों की पूर्णाहूति के लिये
कुछ खिलौनों की जरूरत थी सो तुमने पूरी की
मगर एक बात नहीं सोची
कि जैसा तुम कहते हो उसके अनुसार
यदि हम झूठ हैं , हमारा वजूद झूठा है
ये संसार झूठा है, नश्वर है
तो फिर कैसे तुम एक झूठ से सत्य की चाह रखते हो
जो चीज़ ही झूठी होगी वो कैसे सत्य सिद्ध होगी?
वो कैसे सच दिखा सकती है जिसका आईना ही झूठा हो?
नहीं समझे मेरी बात तो सुनो
तुम्हारी चाहत की ही बात कह रही हूँ
तुम्हें भी चाह होती है ना
कोई सिर्फ़ तुम्हें चाहे
फिर चाहे वो भक्त बने या प्रेमी
माँ यशोदा हो या तुम्हारी गोपियाँ
मीरा हो या राधा
मगर मोहन ! विचारना तो
हम सब तुम्हारे बनाये मिथ्या संसार की मिथ्या वस्तुयें ही तो हैं
फिर कैसे तुम्हें अखंड, अनिर्वचनीय, शाश्वत प्रेम का सुख दे सकती हैं ?
शायद कभी सोचा नहीं होगा तुमने
या किसी ने ये सत्य नहीं कहा होगा तुमसे
और तुम ना जाने कितने कल्पों से
एक ही रचनाक्रम में लगे हो ये सोचते
या खुद को भरमाते
कि हाँ मेरे भक्त सिर्फ़ मुझे चाहते हैं
जबकि सभी जानते हैं ……झूठ के पाँव नहीं होते
और रेत में पानी का आभास किसी मरीचिका से जुदा नहीं होता
फिर भी तुम इस भ्रम के साथ जीना चाहते हो तो तुम्हारी मर्ज़ी
हमने तो आज उस हकीकत से पर्दा हटा दिया जिसका शायद तुम्हें भी ज्ञान नहीं था ………
क्या सच नहीं कहा मैने मोहन ?
जवाब हो तो देना जरूर ………इंतज़ार रहेगा!!!

अरे रे रे ………ये आत्मश्लाघा जैसा कुछ नही है
ना किसी बात पर गर्व है हमें
हम जानते हैं अपनी हैसियत , अपना वजूद
जो क्षणिक है
तुम्हारे हाथों की कठपुतली है
फिर भी ये ख्याल उभरा है तो सोचा तुम्हें बता दूँ
शायद तुम समझ पाओ इसके गहन अर्थ ………

हमारा पानी के बुलबुले सा क्षणभंगुर जीवन ही सही
मगर हम जिस झूठ में जन्म लेते हैं (तुम्हारे कहे अनुसार “झूठ” यानी ये संसार ये जीवन)
उस झूठ को भी सार्थकता से जीते हैं एक सत्य समझकर
क्योंकि हमारे लिये तो यही सत्य है 

जब तक हमें पता ना चले कि हम किसी कहानी के पात्रभर हैं
और उस पर तुम्हारी माया के प्रहार झेलते हैं
जिसमें तुम खुशियों की सब्ज़ी में
किसी ना किसी गम की बघार लगाने से बाज नही आते
फिर भी जीवटता से जी ही लेते हैं हम
तुम्हारे झूठे संसार को सत्य समझकर
क्या तुम कर सकते हो ऐसा ? ज़रा सोचना
क्योंकि हाथ मे चाबु्क लेकर तो कोई भी मदारी बन सकता है …………

प्यार का रंग



प्यार का रंग
कभी तोते सा हरा
तो कभी उसकी 
लाल चोंच सा तीखा
मन को लुभाता है
सच में प्यार 
हर रंग में ढल जाता है
किसी को बैंगनी रंग में भी
आसमाँ दिख जाता है
तो किसी को स्याह रंग में
अपना श्याम नज़र आता है
किसी की चाहतों में 
नीले गुलाब मुस्काते हैं
तो किसी की स्वप्निल आँखों में
गुलाबी रंग मंडराता है
तो किसी को हर रंग में 
सिर्फ़ प्यार का इंद्रधनुष ही 
नज़र आता है
कोई अधरों पर पीली सरसों 
उगाता है
तो कोई धरा के धानी रंग में
अपने प्रेम की पींग बढाता है
सच तो ये है 
उन पर तो बस प्यार का रंग ही चढ जाता है
जो किसी भी तेल या साबुन से ना छुट पाता है
प्यार करने वालों को तो प्यार में हर रंग प्यार का ही नज़र आता है……………

कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन

कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन 

मन में तो तल्खियों के भंवर पड़े हैं 
जो शूल से उर में गड़े हैं 
तुम साथ हो फिर भी मन में फैली 
मीलों की दूरी कहो कैसे मिटाऊँ साजन 

जब से प्रीत तुमसे जुडी है 
मैंने अपना हर रंग तुम संग संजोया 
चाहे इक फांस मन में गडी है 
फिर भी तुम से ही लगन लगी है 
ये कैसे मेरी प्रीत का रंग है 
जो तुम पर ही अटक गया है 
मगर मन का टेसू तो सिसक गया है 
ना आह करता है न वाह करता है 
जिसमे होली का न कोई चिन्ह दीखता है 
फिर कहो तो साथ होते हुए भी 
कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन 

रंगों की बहार उमड़ी है 
मगर मेरी होली दहक रही है 
शोलों का श्रृंगार करके 
तुम्हारी प्रीत को गोद में रखके 
होलिका सी जल रही है 
कहो तो जो बिखरा है रिश्ता 
कैसे उसे बचाऊँ साजन 

साथ होकर भी बिखरे पलों में 
कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन 

कौन सा रंग तोहे भाये मोहे समझ न आये


सांवरे 

कौन सा रंग तोहे भाये 
मोहे समझ न आये 

मैं तो जानूं सिर्फ प्रेम को नाता 
तुम ही तो अडचनें लगाये 
सांवरे 
कौन सा रंग तोहे भाये 

लोभ मोह अहंकार की बेड़ियाँ 
कैसे तुझे दीख जाएँ 
मैं तो जानूं प्रेम को नाता 
आ प्रेम को रंग में रंग जाएँ 
सांवरे 
कौन सा रंग तोहे भाये 

कैसे कैसे तू जाल बिछाए 
मोह माया में मोहे अटकाए 
फिर चाहे तेरे रंग, रंग जाऊं 
सब कुछ छोड़ द्वार तिहारे आऊँ 
तू फिर भी ना अपनाए 
सांवरे 
कौन सा रंग तोहे भाये 

मैंने ओढ़ी प्रीत चुनरिया 
जिसमे लागी अंसुवन लड़ियाँ 
और ना राह कोई नज़र मोहे आये 
मन पर इक श्याम रंग ही चढत है 
दूजा न कोई रंग मोहे भाये 
अब बता जरा कौन से रंग में 
चूनर रंग लूँ जो तेरे मन को भाये 
सांवरे 
कौन सा रंग तोहे भाये 
मोहे समझ न आये 

तुमने मुझको मुझसे छीन  लिया है 
अपने वश में मन मेरा किया है 
जीवन की अब सिर्फ रीत निभाती हूँ 
प्रीत तो सिर्फ तुम्ही से निभाती हूँ 
फिर भी मेरी प्रीत तुझे समझ ना आये 
सांवरे 
कौन सा रंग तोहे भाये 
मोहे समझ न आये 

मन का जोग ले लिया है 
सिर्फ तन ही दुनिया को दिया है 
फिर भी संदेह के बादल छितराए 
तुझे इतना भी न भाये 
बता फिर कैसे हम जी पाएं 
सांवरे 
कौन सा रंग तोहे भाये 
मोहे समझ न आये 

उजले चाँद की बेचैनी कितना बेचैन कर गयी

उजले चाँद की बेचैनी कितना बेचैन कर गयी कि कविता संग्रह बन गयी । विजय कुमार सपत्ति का पहला काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित इस बार के दिल्ली पुस्तक मेले में शामिल हुआ । पहला संग्रह मगर परिपक्वता से भरपूर प्रेम का ऐसा ग्रंथ है जहाँ प्रेयसी जैसे कवि की साँसों में , कवि के जीवन में, उसकी धडकन में , उसके रोम – रोम में बसी हो । कहीं प्रेम का अधूरापन कवि की बेचैनी बढाता है तो कहीं प्रेयसी से मिलन उसकी बेचैनी के फ़फ़ोलों पर एक फ़ाया सा रख देता है मानो चाँद के घटते – बढते स्वरूप का ही अक्स है उजले चाँद की बेचैनी जो हर पंक्ति , हर कविता में बयाँ हो रही हैं । पाठक को एक स्वनीले संसार में ले जाकर छोड देती है जिससे बाहर आने का मन ही नहीं होता।



मैं चादरें तो धो लेती हूँ 

पर मन को कैसे धो लूं 
कई जन्म जी लेती हूँ तुम्हें भुलाने में 
सलवटें खोलने से नहीं खुलतीं 
धोने से नहीं धुलती 

“सलवटों की सिहरन” शीर्षक ही रूह पर दस्तक देता प्रतीत होता है और जब आप उसे पढ़ते हैं तो जैसे आप , आप नहीं रहते सिर्फ एक रूह किसी ख्वाब की ताबीर सी अपने दर्द को जी रही मिलती है .



माँ गुजर गयी 
मुझे लगा मेरा पूरा गाँव खाली  हो गया 
मेरा हर कोई मर गया 
मैं ही मर गया 
इनती बड़ी दुनिया में , मैं जिलावतन हो गया 

गाँव से परदेस या शहर  में जाकर रहने की पीड़ा का मर्मान्तक चित्रण है “माँ” . कैसे जीवन जीने की एक भरपूर उड़ान भरने की आकांक्षा इंसान को उसके अस्तित्व को खोखला कर देती है और भूल जाता है कुछ समय के लिए अपने जीवन की अनमोल धरोहर कहे जाने वाले रिश्तों को मगर एक वक्त के बाद या उनके दूर जाने के बाद तब अहसास के कीड़े बिलबिलाते हैं तो दर्द से कचोटता मन खुद को भी हार जाता है .


“नई भाषा” कविता में कवि ने मोहब्बत की भाषा को जीया  है सिर्फ लिखना ही औचित्य भर नहीं रहा बल्कि मोहब्बत के पंछियों का अपना आसमान होता है जिसके सिर्फ वो ही बादशाह होते हैं ये बताया है तभी तो दर्द की इन्तहा है आखिरी पंक्तियों में 

बड़ी देर हुयी जानां 
तेरी आवाज़ में उस भाषा को सुने 
एक बार वापस आ जाओ तो बोल लूं तुमसे 

इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए प्रेमिका का नाम ही प्रेमी के जीवन की सांस बन गया है मैं तेरा नाम लेता हूँ और अपनी तनहा रूह को चंद सांसें उधार देता हूँ 


मैं हर रात / तुम्हारे कमरे में / आने से पहले सिहरती रही 

“तुम्हारे कमरे में” कितना अपरिचित कर दिया सिर्फ इन तीन शब्दों ने एक स्त्री के अस्तित्व को जिसके लिए वो कभी अपना न बन सका , हमारा न बन सका , कितनी गहरी खायी होगी जिसे न जाने कितनी सदियाँ बीत  जाएँ पर पार नहीं कर सकेंगी इस बात का बोध करा दिया . यूं तो युग युगान्तरों  से स्त्री :एक अपरिचिता  ही रही है और पुरुष के लिए शोध का विषय और हमेशा रहेगी जब तक न उसकी दृष्टि अर्जुन सी होगी और नहीं भेदेगी पाँव के नीचे दबे उस पत्ते रुपी मन को स्त्री का अपरिचित का स्वरुप  ही उसके जीवन में पहेली बन कर सालता रहेगा .


प्रेमकथा जैसे एक सजीव चित्रण . प्रेम तो स्वयं में अपूर्ण होकर भी पूर्ण है तो प्रेमकथा में कैसे न निर्झरता बहेगी, कैसे न विरह का प्रेमगीत तान भरेगा, कैसे न व्याकुल पपीहा पीहू- पीहू करेगा। बस सिर्फ एक ज़िन्दगी नहीं , एक युग नहीं, जन्म जन्मान्तरों से भटकती प्यास को जैसे किसी ने शब्दों और भावों के फूल समर्पित किये हों और देवता के मुखकमल पर मधुर स्मित उभर आई हो और पूजा सफल हो गयी हो साक्षात दर्शन करके कुछ ऐसा ही भाव तो समेटे है प्रेमकथा .


मन की संदूकची में दफ़न यादें कैसे तडपाती हैं , कैसे गले मिलती हैं , कैसे दर्द को सहलाती हैं , कैसे ज़ख्मों की मरहम पट्टी करती हैं और फिर अपने साथ जीने को तनहा छोड़ जाती हैं . इस आलम में यदि किसी को जीना हो तो एक बार इन यादों के गलियारे से गुजर देखे , वापस आना नामुमकिन जान पड़ेगा .


जिस्म तो जैसे एक जलता अलाव हो और गलती से उसे छू लिया हो . शब्दों की बाजीगरी तो सभी करते हैं मगर कोई कविता की आत्मा में उतरा हो और जैसे खुद भोगा हो तब जाकर ऐसी कविता का जन्म हुआ कवि द्वारा ………..जो खुद से भी एक प्रश्न करता कटघरे में खड़ा करता है हर उस जीव को जो खुद को इंसान कहता है .

ज़ख्मों के घर , आंसू मौत , पनाह , पहचान  सर्द होठों का कफ़न ,कवितायेँ तो मोहब्बत की इन्तेहा है . लव गुरु के नाम से विख्यात कवि के भावुक मन की ऐसी दास्ताँ जो हम सबके दिलों के करीब से गुजरती हुयी कानों में सरगोशी करती है तो दिल में एक हलचल मचा  देती है . 

जिस्म का नाम  से क्या मतलब? एक सुलगती दियासलाई जो बता गयी मैं क्यों जली , किसे रौशन किया और फिर क्या मेरा अस्तित्व रहा ………अब चाहे कलयुग हो या त्रेता सुलगना नियति है हर किसी को राम नहीं मिला करते।

इंसान का कितना पतन हो चुका है इसका दर्शन करना है तो जानवर कविता उपयुक  उदाहरण होगी जो अपने नाम को भी सार्थक कर रही है . इंसान और जानवर के फ़र्क में कौन आज बाजी मार रहा है , क्या सच में इंसान, इंसान है? कुछ ऐसे प्रश्न जो मूक करने में सक्षम हैं।


सरहद हो या रिश्ते एक वाजिब प्रश्न उठाती कवितायेँ है 

कवि का भावुक मन प्रेम की प्यास से आकुल कैसे कैसे ख्वाब बुनता है और प्रेमिका को तो जैसे वो स्वयं जीता है तभी तो उसकी दीवानगी में उसका अक्स उसकी रूह में उतरता है . प्रेम और विरह की वेदना से सराबोर याद मोहब्बत , जब तुम  मुझसे मिलने आओगी प्रिये कवितायेँ अन्दर तक भिगो जाती हैं और कवि की कल्पना की नायिका को जैसे सामने खड़ा कर देती हैं शायद यही तो है एक सफल लेखक की पहचान की जो पढ़े ……उसी का हो ले .

सपना कहाँ लगता है सपना हकीकत का सा गुमान होता है जब कवि अपनी प्रेयसी से मिलने का खूबसूरत चित्र खींचता है जिसमें खुद की भी बेबसी और फिर खुद की भी चाहत को एक मुकाम देना चाहता है . ये एक कवि ही कर सकता है जहाँ प्रेम हो वहां सब कुछ संभव है यूँ ही थोड़ी प्रेम को जितना व्यक्त करो उतना अव्यक्त रहता है . 

दोनों इस तरह जी रहे थे अपने अपने देश में 
कि ज़िन्दगी ने भी सोचा 
अल्लाह इन पर रहम करे
क्योंकि वो रात दिन 
नकली हंसी हँसते थे और नकली जीवन जीते थे ……..

ये पंक्तियाँ कहीं न कहीं हमें भी जोडती हैं कवि की उस कल्पना से । हमारी भी तो यही खोज है जिसकी चाह में जन्मों से भटकती प्यास है मगर आकार नहीं पाती और बढ़ता जाता है सफ़र ,अंतहीन सा ,एक ऐसी मंजिल को और जिसका पता होते हुये भी नहीं है .

दो अजनबियों का ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर मिलना , बिछड़ना औरफिर एक अंतराल के बाद फिर से मिलना किन किन अनुभूतियों को जन्म देता है , कितनी औपचारिकता शेष रहती है और कितना अपनत्व उसी का समीकरण है मर्द और औरत कविता में , जो सदियों से या कहों जबसे सृष्टि बनी तभी से एक ऐसे रेगिस्तान में भटक रहे हैं जहाँ थोड़ी दूर पर पानी का गुमान होता है जो किसी मरीचिका से इतर नहीं होता . फिर भी चाहतों के आकाश पर प्रेम के पंछी दो घडी में ही एक जीवन जी जाते हैं . जन्मों की भटकी प्यास को मिटा जाते हैं बिना किसी स्पर्श के सिर्फ अहसासों में जी जाना और प्रेम को मुकाम देना ये भी एक आयाम होता है मर्द और औरत होने का गर यदि इन्हें  सिर्फ वासनात्मक दृष्टिकोण से ही न देखा जाए . 

इस काव्य संग्रह का अंत जैसा होना चाहिए वैसा ही है , प्रेम से शुरू कविता , प्रेम में भीगा जीवन कभी तो अलविदा लेता ही है और यही किसी संग्रह की सफलता है् कि एक एक पायदान पर पैर रखते हुए प्रेम आगे बढ़ता है, अपने मुकाम तय करता है जहाँ प्रेम अपनी शोखियों के साथ जवान होता है फिर उदासियों और पहरों के जंगलों में भटकता आगे बढता है , कभी दर्द कभी विरह वेदना की असीम अनुभूतियों से जकड़ा अपने प्रेम को शाश्वतता की ऊंचाई पर ले जाकर अलविदा लेता है जहाँ शरीर से परे सिर्फ आत्माओं का विलास रूहों का गान होता है जिसे कोई प्रेम का पंछी ही सुन सकता है और गीत गुनगुना सकता है . 

सम्पूर्ण काव्य संग्रह ज़िन्दगी की पहली और अंतिम चाह “प्रेम” की पिपासा का चित्रण है जो मानव की आदि प्यास है और उसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे मानव के ह्रदय की एक एक ग्रंथि पर कवि की पकड़ है जो उसे अन्दर तक भिगोती है और पाठक कल्पना के संसार से बाहर आना ही नहीं चाहता्। एक ऐसी ही दुनिया बसाने की उसकी चाह उसे बार – बार इन कविताओं को पढने को प्रेरित करती है और यही किसी भी लेखक के लेखन की सबसे बड़ी सफलता है . यदि आपके बुक शेल्फ में ये प्रेमग्रंथ नहीं है तो आप महरूम हैं प्रेम के महासागर में गोते लगाने से और यदि आप इसे प्राप्त करना चाहते हैं तो बोधि प्रकाशन से या विजय सपत्ति से संपर्क कर सकते हैं जिनका पता मैं साथ में दे रही हूँ ।

 कवि को इस संग्रह के लिए उसकी भावनाओं को मुखरता प्रदान करने के लिए कोटिशः बधाइयाँ . वो प्रेम के नए आयाम छुए और इसके भी आगे प्रेम को नयी ऊँचाइयाँ देते हुए आगामी संग्रह निकाले यही कामना है . 



सम्पर्क सूत्र :

BODHI PRAKASHAN
F-77, SECTOR –9
ROAD NO. 11
KARTARPURA INDUSTRIAL AREA
BAAIS GODOWN
JAIPUR…302006



VIJAY KUMAR SAPATTI 
FLAT NO -402 , FIFTH FLOOR
PRAMILA RESIDENCY 
HOUSE NO -36-110/402, DEFENCE COLONY 
SAINIK PURI POST 
SIKANDRABAD -94 (ANDHRA PRADESH )

M: 91-9849746500
EMAIL: vksappatti@gmail.com

ए री सखी, आज कोई ऐसा रंग उडा दें



सुरमयी उतरी है साँझ मेरे आँगन में
नवयौवना ने दी है दस्तक मेरे द्वारे पे

ए री सखी,
कोई महावर रचाओ
कोई उबटन बनाओ
कोई द्वार सजाओ
कोई तोरण बनाओ
कोई मंगलगीत गाओ
ब्याह की भी कोई उम्र होती है भला
चलो आज विदाई से पहले
साँझ को दुल्हन बना दें
उसे उसके मीत से मिला दें 

ए री सखी,
उस पर अबीर गुलाल उडा दें
फ़ाग के रंगों की चूनर ओढा दें
वन वन भटकती राधा को
चलो उसके श्याम से मिला दें
प्रीत को उसकी सोलह श्रृंगार से सजा दें
मनमोहिनी कोई सूरत उसके दिल में बिठा दें
इश्क की भांग का इक जाम पिला दें
मदहोश होने की भी कोई उम्र होती है भला
चलो आज उसे मीरा सी दीवानी बना दें
प्रेम की धुन पर दीवानावार नचा दें

ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें
जो सांझ के सुरमयी रंग में मोहब्बत का इंद्रधनुष बना दें
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें जो प्रीत की झांझरें पाँव मे झनका दे 
ए री सखी,
आज प्रेम रंग ऐसा उडा दे जो प्रीत के गुलाल मे तनमन महका दे 
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें उसे उसके प्रियतम की प्रेयसी बना दे
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें जो अलिफ़ लैला की कहानी दोहरा दे
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें जो साजन को सजनी से मिला दे
ए री सखी,
आज तो कोई ऐसा रंग उडा दें प्रेम की हर बगिया महका दे

दिल में होली जल रही है …………………..

जिस भी रंग को चाहा 

वो ही ज़िन्दगी से निकलता रहा 

लाल रंग ………. सुना था प्रेम का प्रतीक होता है 

बरसों बीते 
खेली ही नहीं 
बिना प्रेम कैसी होली 
उसके बाद तो मेरी हर होली ……..बस हो ……….ली !!!

दहकते अंगारों पर 
अब कितना ही पानी डालो 
कुछ शोले उम्र भर सुलगा करते हैं 

दिल में होली जल रही है …………………..

सखी री …………बस ऐसो फाग खिला दे


सखी
सुना  है फाग है आया
पर मेरा मन न हर्षाया
प्रीतम मेरे पास नही हैं
कहो कैसे फाग मनाऊँ
प्रीत की होरी में सखी री
कौन सा रंग भरूँ
जो रच बस जाए
उनके अंतरपट पर
छूटे ना सारी उमरिया
मैं दीवानी उनके दीदार की
मैं मस्तानी उनके प्यार की
किस विधि खेलूँ होरी
सखी री
कोई संदेसा तू ही ला दे
मोहे उन संग फाग खिला दे
प्रेम रस में मैं भीज जाऊं
ऐसो मो पे रंग वो डार दें
सखी री ………….
कोई ऐसो जतन  करा दे
पाँव पडूँ तोरे , करूँ  निहोरे
मुझे पी से मेरे मिला दे
मुझमे प्रेम रस छलका दे
मुझे उनकी दीवानी बना दे
जो कोई देखे मुझको सखी री
मुझमे उनकी सूरतिया दिखा दे
मोहे ऐसो फाग खिला दे
अबकी मोहे ऐसो फाग खिला दे
तन मन भीजे
प्रेम ना छीजे
कोई ऐसो चूनर ओढा दे
सखी री ……….प्रीतम से मिलवा दे
सखी री ……….प्रेम झांझरिया बजा दे
सखी री ……….रंग मुझमे है मैं रंग में हूँ
कोई पता ना पावे
मो पे ऐसो रंग चढ़ा दे ……..
सखी री ………मुझे उनकी बावरिया बना दे
सखी री ……….मेरो फाग रंगों से महका दे
मेरो सांवरिया मिलवा दे
चाहे कौड़ी को बिकवा दे …..मोहे
सखी री …………अब की ऐसो फाग खिला दे
जन्म जन्म की साध पूरी करवा दे
मोहे श्याम रंग में रंगवा दे ………
सखी री …………बस ऐसो फाग खिला दे 


उदंती के मार्च अंक में प्रकाशित निम्न लिंक पर 
http://www.udanti.com/2013/03/blog-post_1220.html