Archive for मई, 2013
वो एक कतरा जो भिगो कर
भेजा था अश्कों के समंदर में
उस तक कभी पहुँचा ही नहीं
या शायद उसने कभी पढ़ा ही नहीं
फिर भी मुझे इंतज़ार रहा जवाब का
जो उसने कभी दिया ही नहीं
जानती हूँ …………
वो चल दिया होगा उन रास्तों पर
जहाँ परियां इंतजार कर रही होंगी
कदम तो जरूर बढाया होगा उसने
मगर मेरी सदायें आस पास बिखरी मिली होंगी
और एक बार फिर वो मचल गया होगा
जिन्हें हवा में उडा आया था
उन लम्हों को फिर से कागज़ में
लपेटना चाहा होगा
मगर जो बिखर जाती है
जो उड़ जाती है
वो खुशबू कब मुट्ठी में कैद होती है
और देखो तो सही
आज मैं यहाँ गर्म रेत को
उसी खुशबू से सुखा रही हूँ
जिसे तूने कभी हँसी में उड़ाया था
बता अब कौन सी कलम से लिखूं
हवा के पन्ने पर सुलगता पैगाम
कि ज़िन्दगी आज भी लकड़ी सी सुलग रही है
ना पूरी तरह जल रही है ना बुझ रही है
क्या आँच पहुंची वहाँ तक ?
ओ मेरे !……….2
कुछ आईने बार बार टूटा करते हैं कितना जोड़ने की कोशिश करो ………….शायद रह जाता है कोई बाल बीच में दरार बनकर ………….और ठेसों का क्या है वो तो फूलों से भी लग जाया करती हैं …………और मेरे पास तो आह का फूल ही है जब भी आईने को देख आह भरी …………टूटने को मचल उठा . आह ! निर्लज्ज , जानता ही नहीं जीने का सुरूर ………..जो कहानियाँ सुखद अंत पर सिमटती हैं कब इतिहास बना करती हैं और मुझे अभी दर्ज करना है एक पन्ना अपने नाम से ………..इतिहास में नहीं तुम्हारी रूह के , तुम्हारी अधखिली , अधपकी चाहत के पैबदों पर ………..जो उघडे तो देह दर्शना का बोध बने और ढका रहे तो तिलिस्म का ………….मुक्तियों के द्वार आसान नहीं हुआ करते और जीने के पथ दुर्गम नहीं हुआ करते …………कशमकश में जीने को खुद का मिटना भी जरूरी है फिर चाहे कितना आईना देखना या टूटे आइनों में निहारना ………तसवीरें नहीं बना करतीं , अक्स नहीं उभरा करते फ़ना रूहों के ……..जानां !!!
मैंने तो सुपारी ले ली है अपनी बिना दुनाली चलाये भी मिट जाने की ………..क्या कभी देख सकोगे आईने में खुद के अक्स पर खुद को ऊंगली उठाये …………ये एक सवाल है तुमसे ……….क्या दे सकोगे कभी ” मुझसा जवाब ” …………ओ मेरे !
कभी देखा है खामोश आसमाँ
कभी देखा है खामोश आसमाँ
दिनकर की उदास बिखरती प्रभाएँ
पंछियों का खामोश कलरव
सुदूर में भटकता कोई अस्तित्व
खामोश बंजर आसमाँ की
चिलमनों में हरकत लाने की कोशिश में
दिन में चाँद उगाने की चाहत को
अंजाम देने की इकलौती इच्छा को
पूरा करने की हसरत में
कभी कभी आसमाँ को अंक में
भरने को आतुर उसके नयन
खामोश शब् का श्रृंगार करते हैं
और आसमाँ की दहलीज पर रुकी
साँझ पल में बिखर जाती है
पर आसमाँ की ख़ामोशी ना तोड़ पाती है
कहीं देखा है टूटा – बिखरा हसरतों का जनाजा ढोता आसमाँ ?
दिनकर की उदास बिखरती प्रभाएँ
पंछियों का खामोश कलरव
सुदूर में भटकता कोई अस्तित्व
खामोश बंजर आसमाँ की
चिलमनों में हरकत लाने की कोशिश में
दिन में चाँद उगाने की चाहत को
अंजाम देने की इकलौती इच्छा को
पूरा करने की हसरत में
कभी कभी आसमाँ को अंक में
भरने को आतुर उसके नयन
खामोश शब् का श्रृंगार करते हैं
और आसमाँ की दहलीज पर रुकी
साँझ पल में बिखर जाती है
पर आसमाँ की ख़ामोशी ना तोड़ पाती है
कहीं देखा है टूटा – बिखरा हसरतों का जनाजा ढोता आसमाँ ?
एक यादगार शाम के दो रंग
25 मई 2013 की शाम डायलाग में “मुक्तिबोध” की प्रसिद्ध कविता ” अंधेरे में ” को पढने का मौका मिला जो एक यादगार क्षण बन गया क्योंकि उपस्थित गणमान्य अतिथियों ने भी उसी कविता के संदर्भ में अपने अपने विचार रखे तो लगा कि सही कविता चुनी मैने पढने के लिये 🙂
पहली बार किसी दूसरे की कविता को पढना और उसके भावों को प्रस्तुत करना आसान नहीं था अपनी कविता का तो हम सभी को पता होता है मगर यहाँ तो मुक्तिबोध को पढना था जो साहित्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं इसलिये कोशिश की कि उनके भावों को सही तरह से प्रक्षेपित कर सकूँ और इस तरह उन्हें नमन कर सकूँ
क्योंकि कविता बहुत बडी है इसलिये सिर्फ़ उसके पहले भाग को ही पढा
इस कार्यक्रम के बाद क्योंकि दूसरे कार्यक्रम में जाना था इसलिये अतिथियों के विचार मुक्तिबोध की कविता के बारे में सुनने के बाद और आशुतोष कुमार जी का मुक्तिबोध की कविता का पाठ सुनने के बाद मुझे वहाँ से जाना पडा ।
एक शाम और दो दो कार्यक्रम ………लीजिये लुत्फ़ आप भी हमारे साथ चित्रों के माध्यम से
सुमन केशरी जी के काव्य संग्रह “मोनालिसा की आँखें” का लोकार्पण कल शाम “इंडिया इंटरनैशनल सैंटर” में किया गया तो वहाँ भी पहुँचना जरूरी था इसलिये डायलाग में कविता पाठ करके और गणमान्य अतिथियों को सुनने के बाद हमने यहाँ के लिये प्रस्थान किया
ये कम उम्र साथी संजय पाल जिसने खुद मुझे पहचाना और आकर मिला तो बेहद खुशी हुयी
यहाँ राजीव तनेजा जी , संजय और रश्मि भारद्वाज के साथ यादों को संजोया
ये हर दिल अज़ीज़ मुस्कान बिखेरती पंखुडी इंदु सिंह के साथ निरुपमा सिंह
सुमन केशरी जी के साथ शाम को जीवन्त किया
इस प्रकार एक सुखद माहौल में काफ़ी लोगों से मिलना हुआ साथ ही आज के समय के वरिष्ठ हस्ताक्षर देवी प्रसाद त्रिपाठी जी और अशोक वाजपेयी जी को सुनने का भी मौका मिला जो एक अलग ही अनुभव था।
राजीव तनेजा जी को आभार व्यक्त करती हूँ जिन्होने ये तस्वीरें संजो कर
हम सबके यादगार क्षणों को यहाँ कैद किया और हमें अनुगृहित किया।
तपती रेत का रेगिस्तान हूँ मैं
तुम और तुम्हारे लाजिक
समझ नहीं आते कभी कभी
कितना हल्के में लेते हो
कभी कभी चीज़ों को
खासतौर पर यदि
वो तुमने किया हो
सिर्फ़ एक इतना भर कह देना
“क्या हुआ फिर ……ऐसे ही होता है “
मगर अपनी गलती कभी नहीं स्वीकारना
और यदि कुछ ऐसा मैने किया होता
तो ……
क्या तब भी यही कहते ?
नहीं ……यही है तुम्हारा दोगला चरित्र
सिर्फ़ अपने लिये जीने वाला
हुंह ………क्यों लिख रही हूँ
क्यों कह रही हूँ
फिर किसे और किसके लिये
खुद से बडबडाने की आदत गयी नहीं अब तक
जबकि जानती हूँ
तुम तक कभी नहीं पहुँचेगी मेरी आवाज़
तुम कभी नही जान पाओगे मुझे
नहीं समझ पाओगे मेरी चाहत
क्योंकि
चाहतों के लिये बन्दगी में सिर झुकाना होता है
और ये तुम्हारे अहम को मंज़ूर नहीं होगा
इसलिये
अब ना गिला ना शिकवा करने का मन करता है
ना तुम पर दोषारोपण का या बहस का
हर बार विश्वास की धज्जियाँ उडाते
तुमने कभी देखा ही नहीं
मेरा वजूद भी उसके साथ
चिंदी चिंदी बन बिखरता रहा
और आज मुझमें “मैं” बची ही नहीं
वो ही वाली “मैं” जिसका
हर शब्द, हर आस , हर विश्वास
हर दिन, हर रात , हर सुबह , हर शाम
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ही तुम थे
वक्त किसी का ऐसा इम्तिहान ना ले
कश्ती हो कागज़ की और सागर पार करना हो वो भी बिना डूबे
तपती रेत का रेगिस्तान हूँ मैं
ज़रा एक अलाव और जला दो ………सुकूँ से जीने के लिये
समझ नहीं आते कभी कभी
कितना हल्के में लेते हो
कभी कभी चीज़ों को
खासतौर पर यदि
वो तुमने किया हो
सिर्फ़ एक इतना भर कह देना
“क्या हुआ फिर ……ऐसे ही होता है “
मगर अपनी गलती कभी नहीं स्वीकारना
और यदि कुछ ऐसा मैने किया होता
तो ……
क्या तब भी यही कहते ?
नहीं ……यही है तुम्हारा दोगला चरित्र
सिर्फ़ अपने लिये जीने वाला
हुंह ………क्यों लिख रही हूँ
क्यों कह रही हूँ
फिर किसे और किसके लिये
खुद से बडबडाने की आदत गयी नहीं अब तक
जबकि जानती हूँ
तुम तक कभी नहीं पहुँचेगी मेरी आवाज़
तुम कभी नही जान पाओगे मुझे
नहीं समझ पाओगे मेरी चाहत
क्योंकि
चाहतों के लिये बन्दगी में सिर झुकाना होता है
और ये तुम्हारे अहम को मंज़ूर नहीं होगा
इसलिये
अब ना गिला ना शिकवा करने का मन करता है
ना तुम पर दोषारोपण का या बहस का
हर बार विश्वास की धज्जियाँ उडाते
तुमने कभी देखा ही नहीं
मेरा वजूद भी उसके साथ
चिंदी चिंदी बन बिखरता रहा
और आज मुझमें “मैं” बची ही नहीं
वो ही वाली “मैं” जिसका
हर शब्द, हर आस , हर विश्वास
हर दिन, हर रात , हर सुबह , हर शाम
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ही तुम थे
वक्त किसी का ऐसा इम्तिहान ना ले
कश्ती हो कागज़ की और सागर पार करना हो वो भी बिना डूबे
तपती रेत का रेगिस्तान हूँ मैं
ज़रा एक अलाव और जला दो ………सुकूँ से जीने के लिये
.ओ मेरे !………..1
सपनों के संसार की अनुपम सुंदरी नहीं जो तुम्हें ठंडी हवा के झोंके सी लगती, फिर भी हूँ …….सोचती हूँ , शायद , कुछ ………..तुम्हारी भी या तुम्हारी बेरुखी की सजायाफ्ता तस्वीर ………..इस उम्मीद के चराग को बुझने नहीं देना चाहती इसलिए खूब डालती हूँ तेल तुम्हारे दिए ज़ख्मों पर आंसुओं का ……..आहा ! फिर जो सुरूर चढ़ता है , फिर जो नशा होता है , फिर जो रवानी होती है …………कब सुबह हुयी और कब शाम ………कौन पता करता है ……………एक मखमली सुकून की तलाश ख़त्म हो जाती है जैसे ही तुम्हारे दिए ज़ख्मों को जलते चिमटे से सहलाती हूँ ………..उम्र ठहर जाती है कुछ देर मेरी दहलीज पर ……………और मैं करती हूँ अट्टाहस अपने गुरूर पर , उस सुरूर पर जो सिर्फ मेरा है और मैं ……………हूँ , का अहसास चुरा लेता है तुम्हारी नींद भी फिर चाहे नहीं हूँ मैं तुम्हारी चाहत की दुल्हन , तुम्हारे सपनो का कोहिनूर …………..नशे के लिए जरूरी नहीं होता हर बार जाम को पीना …………..जो सुरूर बिना पीये चढ़ते हैं उम्र फ़ना होने पर भी न उतरते हैं ……..जानां !!!
बस इतना जानती हूँ …………..तुम्हारे सपनो के संसार की अनुपम सुंदरी नहीं एक धधकती ज्वाला हूँ मैं, गर्म लू सी जो झुलसा देती है चमड़ी तक भी ………..कहो , जी सकोगे अब साथ मेरे या मेरे ना होने पर भी ………..तुमसे एक सवाल है ये ………..क्या दे सकोगे कभी ” मुझसा जवाब ” …………ओ मेरे !
पूर्णविराम से पहले !!!!!!!!
अर्धविराम की अवस्था हो
मगर राह ना सूझती हो
वर्णसंकर सी पगडण्डी हो
मगर राही ना कोई दिखता हो
अन्जान द्वीपों सी भटकन हो
मगर रूह ना कोई मिलती हो
एक आखिरी दांव खेला हो
और पासा भी उल्टा ही पड़ा हो
बताओ तो ज़रा फिर
चौसर के खेल में
कब शकुनी कोई जीता है और धर्मराज कोई हारा है ………..पूर्णविराम से पहले !!!!!!!!
मगर राह ना सूझती हो
वर्णसंकर सी पगडण्डी हो
मगर राही ना कोई दिखता हो
अन्जान द्वीपों सी भटकन हो
मगर रूह ना कोई मिलती हो
एक आखिरी दांव खेला हो
और पासा भी उल्टा ही पड़ा हो
बताओ तो ज़रा फिर
चौसर के खेल में
कब शकुनी कोई जीता है और धर्मराज कोई हारा है ………..पूर्णविराम से पहले !!!!!!!!
"बेबाक महिला "
सुनो
मत खाना तरस मुझ पर
नहीं करना मेरे हक़ की बात
न चाहिए कोई आरक्षण
नहीं चाहिए कोई सीट बस ,ट्रेन या सफ़र में
मैंने तुमसे कब ये सब माँगा ?
जानते हो क्यों नहीं माँगा
क्योंकि
तुम कभी नहीं कर सकते मेरी बराबरी
तुम कभी नहीं पहुँच सकते मेरी ऊँचाईयों पर
तुम कभी नहीं छू सकते शिखर हिमालय का
तो कैसे कहते हो
औरत मांगती है अपना हिस्सा बराबरी का
अरे रे रे …………..
फ़िलहाल तो
तुम डरते हो अन्दर से
ये जानती हूँ मैं
इसलिए आरक्षण , कोटे की लोलीपोप देकर
अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करते हो
जबकि मैं जानती हूँ
तुम मेरे बराबर हो ही नहीं सकते
क्योंकि
हूँ मैं ओत-प्रोत मातृत्व की महक से
जनती हूँ जीवन को ……जननी हूँ मैं
और जानते हो
सिर्फ जनते समय की पीड़ा का
क्षणांश भी तुम सह नहीं सकते
जबकि जनने से पहले
नौ महीने किसी तपते रेगिस्तान में
नंगे पाँव चलती मैं स्त्री
कभी दिखती हूँ तुम्हें थकान भरी
ओज होता है तब भी मेरे मुख पर
और सुनो ये ओज न केवल उस गर्भिणी
गृहणी के बल्कि नौकरीपेशा के भी
कामवाली बाई के भी
वो सड़क पर कड़ी धूप में
वाहनों को दिशा देती स्त्री में भी
वो सड़क पर पत्थर तोडती
एक बच्चे को गोद में समेटती
और दूजे को कोख में समेटती स्त्री में भी होता है
और सुनना ज़रा
उस आसमान में उड़ने वाली
सबकी आवभगत करने वाली में भी होता है
अच्छा न केवल इतने पर ही
उसके इम्तहान ख़त्म नहीं होते
इसके साथ निभाती है वो
घर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी भी
पूरी निष्ठां और ईमानदारी से
जरूरी तो नहीं न
हर किसी को उपलब्ध हों वो सहूलियतें
जो एक संपन्न घर में रहने वाली को होती हैं
कितनी तो रोज बस ट्रेन की धक्कामुक्की में सफ़र कर
अपने गंतव्य पर पहुँचती हैं
कोई सब्जी बेचती है तो कोई होटल में
काम करती है तो कोई
दफ्तर में तो कोई कारपोरेट ऑफिस में
जहाँ उसे हर वक्त मुस्तैद भी रहना पड़ता है
और फिर वहां से निकलते ही
घर परिवार की जिम्मेदारियों में
उलझना होता है
जहाँ कोई अपने बुजुर्गों की सेवा में संलग्न होती है
तो कोई अपने निखट्टू पति की शराब का
प्रबंध कर रही होती है
तो कोई अपने बच्चों के अगले दिन की
तैयारियों में उलझी होती है
और इस तरह अपने नौ महीने का
सफ़र पूरा करती है
माँ बनना आसान नहीं होता
माँ बनने के बाद संपूर्ण नारी बनना आसान नहीं होता
तो सोचना ज़रा
कैसे कर सकते हो तुम मेरी बराबरी
कैसे दे सकते हो तुम मुझे आरक्षण
कैसे दे सकते हो कोटे में कुछ सीटें
और कर सकते हो इतिश्री अपने कर्त्तव्य की
जबकि तुम्हारा मेरा तो कोई मेल हो ही नहीं सकता
मैंने तुमसे कभी ये सब नहीं चाहा
चाहा तो बस इतना
मुझे भी समझा जाए इंसान
मुझे भी जीने दिया जाए
अपनी इच्छाओं आकांक्षाओं के साथ
बराबरी करनी हो तो
आना मेरी ऊँचाई तक
मेरी जीवटता तक
मेरी कर्मठता तक
मेरी धारण करने की क्षमता तक
जब कर सको इतना
तब कहना बराबर का दर्जा है हमारा
जानना हो तो इतना जान लो
स्त्री हूँ ………कठपुतली नहीं
जो तुम्हारे इशारों पर नाचती जाऊं
और तुम्हारी दी हुयी भीख को स्वीकारती जाऊं
आप्लावित हूँ अपने ओज से , दर्प से
इसलिए नही स्वीकारती दी हुयी भीख अब कटोरे में
जीती हूँ अब सिर्फ अपनी शर्तों पर
और उजागर कर देती हूँ स्त्री के सब रहस्य बेबाकी से
फिर चाहे वो समाजिक हों या शारीरिक संरचना के
तोड देती हूँ सारे बंधन तुम्हारी बाँधी
वर्जनाओं के , सीमाओं के
और कर देती हूँ तुम्हें बेनकाब
और उजागर कर देती हूँ स्त्री के सब रहस्य बेबाकी से
फिर चाहे वो समाजिक हों या शारीरिक संरचना के
तोड देती हूँ सारे बंधन तुम्हारी बाँधी
वर्जनाओं के , सीमाओं के
और कर देती हूँ तुम्हें बेनकाब
इसलिय नवाजी जाती हूँ “बेबाक महिला ” के खिताब से
और यदि इसे तुम मेरी बेबाकी समझते हो तो
गर्व है मुझे अपनी बेबाकी पर
क्योंकि
ये क्षमता सिर्फ मुझमे ही है
जो कर्तव्यपथ पर चलते हुए
दसों दिशाओं को अपने ओज से नहला सके
और अपना अस्तित्व रुपी कँवल भी खिला सके
और आज चलन नहीं है आंतरिक सौन्दर्य को सराहे जाने का
नहीं जानती कविता का
अर्थशास्त्र गणित या भूगोल
क्योंकि ना कभी समकालीनों को पढ़ा
ना ही कभी भूत कालीनों को गुना
फिर कैसे जान सकती हूँ
उस व्याकरण को
जहाँ भाषा में शिल्प हो
सौन्दर्य हो
प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग हो
फिर चाहे उनके दोहरे अर्थ ही
क्यों ना निकलते हों
और सब अपने अपने अर्थ उसके गढ़ते हों
मगर कविता तो बस वो ही हुआ करती है
जिसमें गेयता हो
छंदबद्धता हो
सपाटबयानी तो कोई भी कर सकता है
उसके भावों को कौन गिनता है
क्योंकि उसने नहीं जाना बाहरी सौन्दर्य
और आज चलन नहीं है
आंतरिक सौन्दर्य को सराहे जाने का
आज चलन नहीं है सपाटबयानी का
ऐसे में तुमने ही मेरे लिखे में
जाने कैसे कविता ढूंढ ली
जाने कैसे कविता के पायदान पर
मेरी लेखनी को रख दिया
मगर मैंने तो ना कभी कहा
कि मैंने कविता को है गढ़ा
जाने कौन से भाव तुम्हें
उन्मत्त कर गए
जाने कौन सा तार
तुम्हारे दिल को छू गया
जो तुम्हें सपाटबयानी में भी
कविता का सम्पुट दिख गया
और मैं हो गयी तल्लीन आराधना में
साधना में , उपासना में
बिना जाने
बिना पुष्पों के अर्घ्य के
आज के देवता प्रसन्न नहीं हुआ करते
और मुझमे वो कूवत नहीं
जो मछली की ग्रीवा से
सागर में चप्पू चला सकूं
या नए बिम्ब और प्रतीकों के प्रतिमान गढ़ूं
जिनका कोई स्वेच्छाचारी अपने ही अर्थ निकाले
और मेरी रचना का मूल स्वर ही शून्य में समाहित हो जाए
मैं तो बस भावों का मेला लगाती हूँ
और उसमे ज़िन्दगी के अनुभवों को
बिना किसी सजावट के परोसा करती हूँ
क्योंकि ज़िन्दगी कब दुल्हन सी श्रृंगारित हुयी है
ये तो हर पल चूल्हे की आंच सी ही भभकती रही है
और फिर जलती चिताओं की ज्वालाओं में
कब श्रृंगार पोषित , सुशोभित , सुवासित हुआ है ………….बस सोच में हूँ
गर तुम स्वीकारो बिना दहेज़ की दुल्हन को
जिसमे ना शिल्प है ना सौन्दर्य , ना बिम्ब ना प्रतीक
तो इतना कर सकती हूँ
जलती आँच से एक लकड़ी उठा सकती हूँ दुल्हन के श्रृंगार को
जो तुम्हारे सिंहासन को हिलाने को काफी है
वैसे मेरी भावों की दुल्हन किसी श्रृंगार की मोहताज नहीं ……….जानती हूँ
अब तुम खोजते रहना किसी भी कथ्य में “कविता या उसके अर्थ “
मगर आज के वक्त में तुम्हारा ये जानना भी जरूरी है
भावों के तूफानों में कब सजावट सजी संवरी रहा करती है
" मन पखेरू उड़ चला फिर "………आखिर कैसे ये कमाल हुआ
जीवन एक कविता ही तो है बस जरूरत है तो उसे गुनगुनाने की , जीवन एक प्रेमगीत ही तो है बस जरूरत है तो उसमें रच बस जाने की और इन सब भेदों को जीवन्त किया सुनीता शानू ने अपने काव्य संग्रह ” मन पखेरू उड़ चला फिर ” के माध्यम से जो हिन्द युग द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह है .
मन की गति अबाध होती है . कौन कौन से ब्रह्मांडों की सैर पर निकल जाती है कोई सोच भी नहीं सकता मगर सुनीता के पैर धरती पर ही हैं बस मन है जो हिरन सा कुलांचे भरता अपने लक्ष्य की और दौड़ रहा है . कभी प्रेम बनकर तो कभी विरह बनकर , कभी मानवीय सरोकारों से जूझता तो कभी जीने की जिजीविषा का गान बनकर एक ऐसा संगीत बनकर जो प्रकृति सा निस्सृत बह रहा है और पाठक उसके संग डूब उतर रहा है .
कवि मन कितनी सादगी से मन के उद्गारों को प्रकट करता है कि लगता है जैसे हम ये ही तो सोच रहे थे
मोहब्बत की बातें होठों पर होती नहीं हैं
आँखें खुद बताती हैं छुपाकर सोती नहीं है
तो कहीं यादों के झुरमुट में खोजते वो क्षण हैं जो ज़ेहन कि धरोहर बने रहते हैं ताउम्र
बचपन के उस घरौंदे की कसम तुमको
अब आ ही जाओ
कच्ची इमली की कसम तुमको
आह भी वो
नीम पीपल बर्गाफ्द बुलाते हैं
तन्हाई में
हमें अक्सर वाही तो याद आते हैं
कितनी कोमलता है भावों में तो एक कसक , एक मिठास भी तारी है जो मन को भिगोता है .
जीने को क्या चाहिए सिर्फ इक मुट्ठी आसमान और उसी की चाहत यहाँ जज़्ब है
लोग
कहते हैं मसीहा
सरे जग को
देने वाले ज्यादा नहीं पर थोडा सा ही
मुझको तेरा प्यार दे दे
जी सकें जिसमें तनिक , इक
छोटा सा संसार दे दे
भावों की गरिमा ग़ज़ल में माध्यम से दिल तक पहुँचती है
लगे हैं फूलों के मेले शाखों पर ऐसे
की जैसे परिंदा नया कोई आया है
काग भी बोल रहा था मुंडेर पर कब से
घर पे तुम्हारे ये मेहमान कौन आया है
ये ही नहीं कवि मन अपनी संस्कृति को भी नहीं भूलता है बल्कि उसमे तो उसका मन और हिलोरें लेने लगता है तभी तो होली का खूबसूरत चित्रण कर पाता है
दूर कहीं कलरव करती
चली परिंदों की बरात
कहीं बजी बांस में शहनाई
और महकती बह चली
रंगीन पुरवाई
कि आज होली रे ……………………..
मन पखेरू से बतियाती सुनीता उस असमंजस को बयां करती है जिससे हर कोई गुजरता है और मन को बाँधने के जतन करता है
रे नीडक , तू चंचल क्यूं है
कहीं तेरा छोर न पाता है
कभी इधर तो कभी उधर
इक डाल पे टिक नहीं पाता है
रे पाखी अब मान भी जा टू
क्यूं अपमानित हुआ जाता है
ये सच है कि सुबह का भूला
लौट शाम घर आता है
आ तनिक विश्राम भी कर ले
ठहर क्यों नहीं पाता है
“पंछी तुम कैसे गाते हो “कविता के माध्यम से जीवन की जिजीविषा का बहुत ही सफल वर्णन किया है साथ ही एक सीख भी मिलती है कि जीवन जीना कैसे चाहिए .
एक तरफ ” इंतज़ार” के मुहाने पर खड़ा प्रेम है तो दूसरी तरफ ” प्यार का सितारा” कहीं टूट जाता है क्योंकि गागर में भी सागर समाया है
फेंक कर पत्थर जो मर
तड़प उठीं मौन लहरें
डूबने से डर रहे तुम
शांत मन की झील में
शायद झील से भी ज्यादा गहरा है यहाँ प्रेम का अस्तित्व
छोटी छोटी क्षणिकाएं बहुत गहरी बात कह रही हैं
मौत ने ज़िन्दगी पर
जब किये हस्ताक्षर
वह था एक और ज़िन्दगी के
जन्म लेने का पहला दिन
तुम तनहा कहाँ हो
लिपटी हुयी तुमसे
मैं जो रहती हूँ सदैव
कहती है तन्हाई मुझसे
उसकी आँखों से हकीकत बयां होती है
हर घडी एक नया इम्तिहान होती है
घूरने लगती हैं दुनिया कि नज़र उसको
जब किसी गरीब की बेटी जवान होती है
बहुत देर के बाद कहा
तुमने मुझे अपना
लेकिन अब मैं
किसी और की हो चुकी हूँ
अंतर्मन जब बेचैन हो उठता है , कहीं कोई ठौर न उसे दीखता है तब पुकार उठता है उस असीम को और जोड़ लेता है उसी से ” दर्द का रिश्ता ” क्योंकि एक वो ही तो है जहाँ जाकर दर्द भी चैन पाता है
एक कोने में बैठा
निर्विकार
सौम्य
अपलक निहारता मुझे
और बा्ट जोहता की
मैं
पुकारूं तेरा नाम
” अतीत के दंश ” नाम ही काफी है सब कुछ बयां करने को जिसे कुछ यूं बयां किया है
कभी कभी आत्मा के गर्भ में
रहा जाते हैं कुछ अंश
दुखदायी अतीत के
जो उम्र के साथ साथ
फलते फूलते
लिपटे रहते हैं
अमर बेल की मानिंद
तो दूसरी तरफ भावुक मन समाज में फैले कोढ़ पर भी दृष्टिपात किये बिना नहीं रहता जिसे उन्होंने मासूमियत के माध्यम से उकेरा है
मासूम अबोध आँखों को घेरे
स्याह गड्ढों ने भी शायद
वक्त से पहले ही
समझा दिया था उसे
कि सबको खिलाने वाले
उसके ये हाथ
जरूरी नहीं कि भरपेट खि्ला पायेंगे
उसी को
” मलाल “ शायद ज़िन्दगी की हकीकत को बयां करती रचना है जहाँ जरूरी होता है दोनों पक्षों का खुश रहना जो कभी संभव ही नहीं हो पाता और एक मलाल दोनों के दिलों को ता- ज़िन्दगी कचोटता रहता है
तुम्हें शायद
यकीं न हो किन्तु यही सच है
तुम ही कहो
क्या कभी कोई किसी को
रखा पाया है खुश
पूरी तरह से ?
एक बेटी के मन की पीड़ा को गहनता से महसूसता दिल उसके दर्द को कुछ इस तरह बयां करता है
कहा था एक दिन तुमने
पराई अमानत है
ये बच्ची
तभी से आज तक माँ
मैं अपना घर ढूंढती हूँ
” कामवाली ” कविता जीवन के कटु यथार्थों को बेलिबास करती वो रचना है जो सच कहने से नहीं हिचकिचाती कि लाइफ लाइन हैं ये कामवालियां आज लेकिन किन हालात में और कैसे काम करती हैं खुद को भुलाकर ये एक सोचने का विषय है
घरवाली के सौन्दय का ख्याल रख तुम्हें
बने रहना है पूर्ववत
कामवाली तुम्हें बस काम से मतलब रखना है
तुम्हारा पति
तुम्हारे बच्चे
तुम्हारा सजना संवारना
शाम होने और दिन निकलने के
बीच का मामला है
तुम जानती हो
कुंठित सोच पर तुषारापात करती है कविता …..कामवाली
किस पर करूँ विश्वास , ख़ामोशी , श्रृंखला , एक शाम , कन्यादान , माँ आदि सभी कवितायेँ जीवन के पहलुओं से ओतप्रोत रचनायें हैं जो रोज हम सबके जीवन में घटित होती हैं मगर सब कोई उन्हें शब्दों में बांध नहीं पाता और ये तो रोजमर्रा का काम है सोच कोई भी ध्यान नहीं देता जबकि ये ही तो जीवन की हरित क्रांति का एक हिस्सा हैं जिनके बिना जीवन अधूरा दीखता है और जिन्हें यदि शब्दों की मेड लगा कर बांध दिया जाए तो एक जीवन दर्शन होता है .
सुनीता की सभी कवितायेँ जीवन के प्रत्येक क्षण की गवाह रही हैं फिर चाहे वो ” चिन्ह “ हो या ” डोर “ या ” फिर जीना चाहती थी मैं “ हो . हर कविता सहजता से अपनी बात कह जाती है जहाँ पाठक को जोर नहीं लगाना पड़ता बस डूबता जाता है उन पलों में जो उसके जीवन के करीब होते हैं , जहाँ वो खुद को जैसे एक आईने के सम्मुख पाता है और अपने जीवन का दर्शन करता है .
एक ऐसा काव्य संग्रह है ” मन पखेरू उड़ चला फिर ” जिसमे मन ही तो बतिया रहा है ,मन ही उड़ान भर रहा है कभी दिशा में तो कभी दिशाहीन होता मगर मन तो आखिर मन है , चंचल है , किसी जगह नीड़ कब बनाता है और उसी चंचलता ने हमें इस काव्य संग्रह के रूप में एक हम सबके जीवन का आईना दिया है जिसमे कुछ देर बैठकर हम खुद को निहार सकें , खुद से बतिया सकें और यही किसी भी लेखक के लेखन की सफलता है जहाँ पाठक खुद को उन क्षणों का हिस्सा समझे और उसमे जिए .
सुनीता को अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए कामना करती हूँ वो इसी तरह आगे बढती जाएँ और हम सब को अपनी प्रतिभा से रु-ब -रु कराती रहे .
195 रूपये मूल्य वाल इस काव्य संग्रह को जो भी पाठक प्राप्त करना चाहते हैं वो हिन्दयुग्म से संपर्क कर सकते हैं
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प्यारी सखी सुनीता की कल इस किताब का विमोचन कांस्टीट्यूशन क्लब में होगा और मेरी तरफ़ से उन्हें ये प्यार भरा तुच्छ तोहफ़ा मैं भेंट कर रही हूँ ह्रदय के उदगारों के रूप में जो मैने उनकी किताब पढकर महसूस किये ………उम्मीद है स्वीकार्य होगा