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बूँद बूँद का रिसना 

रिसते ही जाना बस 
मगर आगमन का 
ना कोई स्रोत होना 
फिर एक दिन घड़े का 
खाली होना लाजिमी है 
सभी जानते हैं 
मगर नहीं पता किसी को 
वो घडा मैं हूँ 


हरा भरा वृक्ष 
छाया , फूल , फल देता 
किसे नहीं भाता 
मगर जब झरने लगती हैं 
पीली पत्तियां 
कुम्हलाने लगती है 
हर शाख 
नहीं देता 
फूल और फल 
ना ही देता छाँव किसी को 
तब ठूँठ से कैसा सरोकार 
बस कुछ ऐसा ही 
देखती हूँ रोज खुद को आईने में 

भावों के सारे पात झर गए हैं 
मन के पीपर से 
ख्यालों के स्रोते सब सूख गए हैं 
और बच रहा है तो सिर्फ 
अर्थहीन ठूंठ 
जिस पर फिर बहार आने की उम्मीद 
के बादल अब लहराते ही नहीं 
तो कैसे कहूँ 
खिलेगा भावों का मोगरा फिर से दिल के गुलशन में 

इस कदर भी कोई तन्हा ना हो कभी खुद से भी … 

Comments on: "इस कदर भी कोई तन्हा ना हो कभी खुद से भी …" (10)

  1. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति………

  2. इस कदर भी कोई तन्‍हा ना हो कभी खुद से … बहुत सही कहा ….

  3. बहुत खूब … संवेदनशीलता बची रहना जरूरी है इसलिए दिल में … भावपूर्ण शब्द …

  4. मगर एक दिन पुनः वसंत आता है..आशा का दामन थामे रहें तो जीवन पुनः लहलहाता है..प्रेम शाश्वत है..

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