तोड़ने से पहले तोडना
और जोड़ने से पहले जोड़ना
कोई तुमसे सीखे
कितनी आसान प्रक्रिया है
तुम्हारे लिए
ना जाने कैसी सोच है तुम्हारी
ना जाने कैसे संवेदनहीन होकर जी लेते हो
जहाँ किसी की संवेदनाओं के लिए
कोई जगह नही होती
होती है तो सिर्फ एक सोच
अर्थ की दृष्टि से
अगर आप में क्षमता है
आर्थिक रूप से कुछ कर पाने की
तब तो आप की कोई जगह है
वर्ना आपका नंबर सबसे आखिरी है
बेशक दूसरे आपको सम्मान देते हों
आपके लेखन के कायल हों
मगर आप के जीवन की
यही सबसे बड़ी त्रासदी होती है
आप अपने ही घर में घायल होती हो
नहीं होता महत्त्व आपका
आपके लेखन का
आपके अपनों की नज़रों में ही
और आसान हो जाता है उनके लिए कहना
क्या करती हो ………”कागज़ ही तो काले करती हो “
फिर चाहे बच्चे हों या पति
बेटा हो या बेटी
उनकी सोच यहीं तक सीमित होती है
और वो भी कह जाते हैं
आपका काम इतना जरूरी नहीं
पहले हमें करने दो
इतने प्रैक्टिकल हो जाते हैं
कि संवेदनाओं को भूल जाते हैं
उस पल तीर से चुभते शब्दों की
व्याख्या कोई क्या करे
जिन्हें पता ही नहीं चलता
उनके चंद लफ़्ज़ों ने
किसी की इमारत में कितनी दरारें डाल दी हैं
और दिलोदिमाग में हथौड़े से बजते लफ्ज़
जीना दुश्वार करते हैं
और सोचने को मजबूर
क्या सिर्फ आर्थिक दृष्टि से सक्षम
स्त्री का कार्य ही स्वीकार्य है
तभी उसके कार्य को प्रथम श्रेणी मिलेगी
जब वो आर्थिक रूप से संपन्न होगी
और उस पल लगता है उसे
शायद किसी हद तक सच ही तो कहा किसी ने
क्या मिल रहा है उसे …………कुछ नहीं
क्योंकि
ये वो समाज है
जहाँ अर्थ ही प्रधान है
और स्वान्तः सुखाय का यहाँ कोई महत्त्व नहीं …………..
शायद इसीलिये
हकीकत की पथरीली जमीनों पर पड़े फफोलों को रिसने की इजाज़त नहीं होती ……………….
और जोड़ने से पहले जोड़ना
कोई तुमसे सीखे
कितनी आसान प्रक्रिया है
तुम्हारे लिए
ना जाने कैसी सोच है तुम्हारी
ना जाने कैसे संवेदनहीन होकर जी लेते हो
जहाँ किसी की संवेदनाओं के लिए
कोई जगह नही होती
होती है तो सिर्फ एक सोच
अर्थ की दृष्टि से
अगर आप में क्षमता है
आर्थिक रूप से कुछ कर पाने की
तब तो आप की कोई जगह है
वर्ना आपका नंबर सबसे आखिरी है
बेशक दूसरे आपको सम्मान देते हों
आपके लेखन के कायल हों
मगर आप के जीवन की
यही सबसे बड़ी त्रासदी होती है
आप अपने ही घर में घायल होती हो
नहीं होता महत्त्व आपका
आपके लेखन का
आपके अपनों की नज़रों में ही
और आसान हो जाता है उनके लिए कहना
क्या करती हो ………”कागज़ ही तो काले करती हो “
फिर चाहे बच्चे हों या पति
बेटा हो या बेटी
उनकी सोच यहीं तक सीमित होती है
और वो भी कह जाते हैं
आपका काम इतना जरूरी नहीं
पहले हमें करने दो
इतने प्रैक्टिकल हो जाते हैं
कि संवेदनाओं को भूल जाते हैं
उस पल तीर से चुभते शब्दों की
व्याख्या कोई क्या करे
जिन्हें पता ही नहीं चलता
उनके चंद लफ़्ज़ों ने
किसी की इमारत में कितनी दरारें डाल दी हैं
और दिलोदिमाग में हथौड़े से बजते लफ्ज़
जीना दुश्वार करते हैं
और सोचने को मजबूर
क्या सिर्फ आर्थिक दृष्टि से सक्षम
स्त्री का कार्य ही स्वीकार्य है
तभी उसके कार्य को प्रथम श्रेणी मिलेगी
जब वो आर्थिक रूप से संपन्न होगी
और उस पल लगता है उसे
शायद किसी हद तक सच ही तो कहा किसी ने
क्या मिल रहा है उसे …………कुछ नहीं
क्योंकि
ये वो समाज है
जहाँ अर्थ ही प्रधान है
और स्वान्तः सुखाय का यहाँ कोई महत्त्व नहीं …………..
शायद इसीलिये
हकीकत की पथरीली जमीनों पर पड़े फफोलों को रिसने की इजाज़त नहीं होती ……………….
Comments on: ""कागज़ ही तो काले करती हो "" (29)
कागज के काले अक्षर सारे विश्व में फैलेंगे, एक दिन…
बढिया रचना विजयदशमी की शुभकामनाऐं
:):)..ऐसा ही है. अर्थ का ही महत्व है.
हकीकत की पथरीली जमीनों पर पड़े फफोलों को रिसने की इजाज़त नहीं होतीबेहद प्रभावशाली अंदाज़ में अपनी बात को कहने मे सफल कविता। आपको विजय दशमी की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ!सादर
सबके परिवार वाले यही समझते हैं!बहुत सुन्दर प्रस्तुति!ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ♥(¯*•๑۩۞۩~*~विजयदशमी (दशहरा) की हार्दिक बधाई~*~۩۞۩๑•*¯)♥ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ
आओ फिर दिल बहलाएँ … आज फिर रावण जलाएं – ब्लॉग बुलेटिन पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सब को दशहरा और विजयादशमी की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें ! आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
न स्वान्तः सुख … न वसुधैव कुटुम्बकम का माहौल ! कागज़ काले कर एक घर तो बन जाता है , बन जाता है एक सूरज एक चिड़िया और एक पूरा दिन सपनों सा अपना ….
बढिया रचना, बहुत सुंदरआपको विजयदशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 25-10 -2012 को यहाँ भी है …. आज की नयी पुरानी हलचल में ….फरिश्ते की तरह चाँद का काफिला रोका न करो —.। .
hoom sahi kaha hai हकीकत की पथरीली जमीनों पर पड़े फफोलों को रिसने की इजाज़त नहीं होती bhavon se bhari gahri panktiyarachana
क्या सिर्फ आर्थिक दृष्टि से सक्षमस्त्री का कार्य ही स्वीकार्य है……वहां भी स्वीकार्यता मिल जाए तो बड़ी बात है …वरना मूल (स्त्री -पुरुष ) भेद तो बना ही रहता है
हमेशा से स्त्री के किए गए कार्यों को महत्ता नहीं मिलती …. अर्थ भी कमा ले तो कहा यही जाता है कि तुम अपनी खुशी के लिए कर रही हो ….
😦
ये वो समाज है जहां अर्थ ही प्रधान है बहुत ही सशक्त लेखन सादर
बहुत ही सुंदर रचनाAdd Happy Diwali Greetings to your blog – मित्रों को शुभ दीपावली बधाइयाँ दीजिए
bahut sunder 🙂
जिनके मन में खोट है वो ही दिशाहीन रहते हैं चुपचाप अपना काम करने वाले अकसर अपनी मंजिल बहुत जल्दी पा लेते हैं ……
बहुत बढिया रचना …
bahton ki aapbiti ko shabd de diye.
सटीक बात लिखी है आपने .काले पन्ने ही युग बदलने की समर्थ रखते है बढ़िया लेखन दिल से भी, बधाई
काले कागजों में ही हीरा छिपा होता है। मेरे पिताजी भी एक समय यही कहा करते थे, कागज काले करने से पेट नही भरेगा। पर आज समय की सच्चाई यही है कि मेरे लिए कागज काले करना ही आजीविका का साधन है।
khoobasurat
क्योंकि यह वह समाज है ,जहां अर्थ ही प्रधान है ,क्या करती हो ,कागज़ ही कारे करती हो .बढ़िया बिम्ब घर दफ्तर के पाटों में पिसती औरत का .ram ram bhaiमुखपृष्ठरविवार, 28 अक्तूबर 2012तर्क की मीनारhttp://veerubhai1947.blogspot.com/
यही काले अक्षर ,मशाल बन कर रोशनी देते हैं – सँभाले रहिये !
यही काले अक्षर ,मशाल बन कर रोशनी देते हैं – सँभाले रहिये !
बहुत सार्थक और प्रभावी रचना…
'मन को उजला कर देता है,यद्यपि 'कागज़ काला'है|दे कर 'ज्ञान-प्रकाश' यह करता,'अन्धेरे' में उजाला है ||'गगन-धरा'सब जगह व्याप्त है,'ज्ञान'है व्यापक ईश्वर सा-'प्रेम-ज्ञान'को भूल फेरती,'दुनियाँ','ढोंग की माला' है ||
kahiye…karte rahenge 🙂
इन काले कागजों ने बदले हैं इतिहास कई साम्राज्यों के …स्वयं निर्जीव होते हुवे भी जीवन को सार्थक स्वर दिए हैं …बेहद भाव पूर्ण गहन अभिव्यक्ति…..शुभ कामनाएं !!